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________________ ॐ २७६ ७ कर्मविज्ञान : भाग ६ * मैत्री के इस महान् सूत्र का प्रतिदिन रटन करने वाले के समक्ष कोई शत्रु रहता ही नहीं। ईसामसीह ने कहा-“अपने शत्रु के साथ भी मैत्री करो।" भगवान महावीर ने इससे आगे की बात कही-“किसी को शत्रु मानो ही मत। पहले किसी को शत्रु मानो और फिर उससे मैत्री करो, इससे तो अच्छा है कि प्रारम्भ से ही किसी को शत्रु न मानो।" 'मेरा कोई भी शत्रु नहीं है', यह भावना अन्तर्हृदय से जैसे-जैसे पुनः पुनः आवर्तन होकर पुष्ट होती जाती है, वैसे-वैसे विश्वमैत्री के साधक के दिल-दिमाग से शत्रुता का भाव नष्ट होता जाता है। प्रसन्नता और वत्सलता की, आत्मीयता और हितैषिता की ऊर्मियाँ प्रति क्षण उठती रहती हैं। मैत्रीपूर्ण हृदय में प्रतिशोध की आग तो भड़क ही नहीं सकती। ___ वस्तुतः संसार के सभी जीव मैत्रीभावना के विषय हैं। परिचित-अपरिचित, विरोधी-अविरोधी सभी जीवों का इसमें समावेश है। सम्पूर्ण जीवराशि मैत्री की मंगलभावना से जुड़ी हुई होनी चाहिए। एक भी जीव को मैत्रीभावना से पृथक् नहीं रखा जाना चाहिए। क्योंकि जब हम 'मित्ती मे सव्व भूएसु' बोलते हैं, तब संसार के समस्त प्राणियों में से एक भी प्राणी को इससे अलग रखा तो भगवदाज्ञा के प्रतिकूल होगा। 'शिवमस्तु सर्वजगतः' (सारे संसार का कल्याण हो) का नारा लगाकर यदि ‘मेरे पड़ौसियों का कल्याण कतई न हो', ऐसी बादबाकी विश्वमैत्री की भावना में नहीं हो सकती। मैत्रीभावना का फ्रेण्ड सर्कल सारा विश्व है। __ इंग्लैण्ड में 'इण्टरनेशलन लव' नामक एक संस्था है। इसके सदस्य निश्चित दिन के निश्चित समय पर एक विशाल चौराहे पर इकट्ठे होते हैं और जोर-जोर से नारे लगाते हैं-“We love all.” (हम सबसे प्यार करते हैं।) उसमें एक युवती भी नियमित रूप से भाग लेती थी। उसके पड़ौसी ने याद दिलाया-"बहन ! तुम सारी दुनियाँ से प्रेम करने का नारा लगाती हो, जरा अपने माता-पिता से ।" यह सुनते ही वह एकदम भड़क उठी-"उनसे तो कतई नहीं। वे मेरे जानी दुश्मन हैं।" क्या आप इसे विश्वमैत्री कहेंगे या विश्वमैत्री का केवल नारा ! समस्त जीवों के लिए मैत्री के द्वार खुले रखो प्रकटरूप में कदाचित् कोई किसी को विश्वमैत्री के असीम दायरे से माइनस (बादबाकी) न भी करता हो, फिर भी अन्तःकरण के गर्भ में कुछ व्यक्तियों के साथ मैत्री के लिये हृदयमन्दिर के द्वार पर 'नो एडमिशन' का बोर्ड लगा रखा हो, तो वीतराग-प्रभु के आदेश की अवहेलना होगी। 'नंदीसूत्र' के मंगलाचरण में भगवान
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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