SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 295
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * मैत्री आदि चार भावनाओं का प्रभाव ॐ २७५ ॐ घृणा, कुण्ठा, विषाद और उद्विग्नता जड़ जमा लेते हैं। जिस व्यक्ति को वह शत्रु या विरोधी मान लेता है, उसका तो वह बिगाड़ सके या न बिगाड़ सके, अपने जीवन की शान्ति और शारीरिक-मानसिक स्वस्थता को चौपट कर लेता है। इसके विपरीत, जिसने सबको अपना मित्र माना, मित्र की भावना से देखा, उसने अपना शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य बनाया, अपने आत्मिक शाश्वत सुख में वृद्धि की, अपनी प्रसन्नता हस्तगत की। ऐसा करके उसने अपने जीवन से घृणा, भय, आतंक, विषाद, दुःख और दैन्य को विदा कर दिया। अपने आप से सत्य को खोजो, किसी को शत्रु मत मानो इसीलिए भगवान महावीर ने कहा-“अपने आप से (आत्मा से) दूसरों की तुलना करके सत्य को खोजो और प्राणीमात्र के प्रति मैत्री करो।" तात्पर्य यह है कि हम सत्य को जानें और अपने आप को बदलें। मनुष्य सत्य को न जानकर अपने प्रमाद का दोष दूसरों पर मढ़ देता है और उसे शत्रु मान लेता है। मान लो, किसी व्यक्ति को रास्ते में पड़े हुए किसी पत्थर से ठोकर लगी, चोट आ गई। अब सचाई यह है कि उसे अपनी गफलत से, अपने प्रमाद से पत्थर की ठोकर लगी, चोट आई। किन्तु सारा दोष वह पत्थर का और वहाँ पत्थर रखने वाले का निकालेगा, वह दूसरों को दोषी मानकर सारा दोषारोपण दूसरों पर करता है और अपने आप को बचा लेता है। परन्तु जो अपनी आत्मा द्वारा सत्य को खोजता है, वह दूसरों पर आरोप नहीं लगाता, न ही उसे शत्रु मानता है। वह इस बात को परमार्थ दृष्टि से स्वीकार करता है, मेरी अपनी ही गलती से, प्रमाद से ऐसा हुआ। कर्मविज्ञान द्वारा सत्य को खोजकर, अप्रमत्त और जागरूक रहकर अपना अनिष्ट करने या अपने आप को संतप्त करने वाले को भी शत्रु नहीं मानेगा, बल्कि उसे कर्म काटने में सहायक मित्र ही मानेगा।२ ... प्राणीमात्र को अपना मित्र मानो, किसी को शत्रु मानो ही मत इसीलिए भगवान महावीर ने साधक को प्रतिक्रमण करते समय यह पाठ दुहराने का कहा-. . . “मित्ती मे सव्वभूएसु वेरं मज्झ न केणइ।" -मेरा सब प्राणियों के साथ मैत्रीभाव है, किसी के प्रति वैरभाव नहीं है। १. · 'जीवन की पोथी' से भाव ग्रहण, पृ. ५५ २. (क) अप्पणा सच्चमेसेज्जा, मेत्ती भूएहिं कप्पए। -उत्तराध्ययन, अ. ६, गा. २ (ख) 'अमूर्त चिन्तन' (युवाचार्य महाप्रज्ञ) से भाव ग्रहण, पृ. ९२
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy