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________________ ॐ २७४ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ * मैत्रीभावना का प्रभाव ___ सर्वप्रथम मैत्रीभावना को ही लीजिए। मैत्रीभाव जव जीवन में आ जाता है, तो व्यक्ति-व्यक्ति में, कुटुम्ब में, समाज, देश, प्रान्त और राष्ट्र में फैली हुई अशांन्ति, अराजकता और अव्यवस्था की आग बुझ जाती है, सर्वत्र शान्ति का वातावरण छा जाता है, प्रत्येक व्यक्ति सुखपूर्वक जीने लगता है, प्रत्येक व्यक्ति को सुख-शान्ति और स्वाभिमानपूर्वक जीने का अधिकार मिल जाता है। एक-दूसरे को परस्पर निर्भयता, अनाक्रमणता, विश्वास और सहिष्णुता का सम्बल मिल जाता है। ये ही चारों मैत्री के परम आधार हैं। ये जहाँ नहीं होते, वहाँ मैत्री स्थायी नहीं हो पाती। हृदय में मैत्री की स्थापना से अलभ्य लाभ । ____ मैत्री जब हृदय में व्यापक रूप धारण करके आती है, तब सारी क्षुद्रताएँ, संकीर्णताएँ, संकुचित स्वार्थभावनाएँ, अपने-परायेपन का भाव, दूसरे के प्रति शत्रु, विरोधी, वैरी या परायेपन के भाव नहीं रहते। अतः मैत्रीभावना से आत्मा में व्यापकता, सर्वभूतात्मभावना, विश्वबन्धुत्व की दृष्टि आ जाती है। अपनी आत्मा को विकसित एवं व्यापक बनाने का अथवा पूर्णता तक पहुँचाने का यदि कोई पुण्य साधन है तो विश्वमैत्री है। विश्वमैत्री की भावना के माध्यम से मनुष्य एक शरीर से सारे विश्व की आत्माओं तक पहुँच सकता है। मैत्रीभावना को अपनाने वाले के लिये सारा विश्व ही अपना कुटुम्ब हो जाता है। वह विश्वमैत्री की भावना हृदय में सँजोकर जहाँ भी जाता है, वहाँ उसे आत्मीय मिल जाते हैं। अतः विश्वमैत्री को हृदय में स्थान देने का अर्थ है-हृदय में आत्मीयता, बन्धुता, विश्वास और निर्भयता, सहृदयता और क्षमा का भाव जाग्रत होना। जिसके मन में प्राणीमात्र के प्रति मैत्री का भाव जग जाता है, उसका कोई शत्रु नहीं रहता। जब मन से शत्रुता का भाव निकल जाता है तो आत्मा में आनन्द का स्रोत फूट पड़ता है। उस व्यक्ति का मनोबल बढ़ता जाता है। शत्रुता एक विषैला कीड़ा है, वह जिसके पीछे लग जाता है, उसे निरन्तर सताता रहता है, भय और आशंका से उसका.प्राण सूखने लगता है, उसका मनोबल क्षीण होने लगता है। उसके मन में माने हुए शत्रु के प्रति १. तुलना करें-सद्धर्मध्यान-सन्धान-हेतवः श्री जिनेश्वरैः । मैत्रीप्रभृतयः प्रोक्ताश्चतस्रो भावनाः पराः॥ मैत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थ्यानि नियोजयेत्। धर्मध्यानमुपस्कर्तुं, तद्धि तस्य रसायनम्॥ २. 'शब्दों की वेदी : अनुभव का दीप' से भाव ग्रहण, पृ. ३६७ ३. 'समतायोग' (प्रवक्ता : रतन मुनि जी) से भाव ग्रहण, पृ. २६ -शान्तसुधारस मैत्री १/२
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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