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________________ * कर्ममुक्ति के लिए चार तत्त्वों का ज्ञान आवश्यक ९ तात्पर्य यह है-जैन-कर्मविज्ञानसम्मत कर्म शब्द को यहाँ दुःखरूप बताया है। सांसारिक दुःख आदि को हेय बताया है तथा द्रष्टा = चेतन, आत्मा पुरुष है और दृश्य कर्मोपाधिक बाह्य रूप- रसादि विषय तथा अन्य भोग्य पदार्थ एवं आन्तर पदार्थ-इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि हैं। इन्हीं के आकर्षण के कारण आत्मा इनसे बँधी रहती है। अतः इन दोनों का संयोग = बन्ध हेयहेतु है । हान का शाब्दिक अर्थ है-छूटना। आत्मा का पूर्वोक्त जड़ के बन्धन से छूटना हान है। हान का उपाय करने से व्यक्ति दुःख से मुक्ति पा जाता है। आत्म-तत्त्व (चेतन) देह, मन, बुद्धि आदि से सर्वथा भिन्न है । इस प्रकार की विवेकख्याति ही 'हान' (दुःखमुक्ति) का उपाय है। = निष्कर्ष यह है कि जैसे किसी व्यक्ति के पैर में तीखा काँटा चुभ जाने से उसे दुःख होता है। पैर का छिदना दुःखरूप है। काँटा उसका कारण है। काँटे से बचकर निकल जाना अथवा पैर में जूते आदि का पहनना उसके प्रतिकार का उपाय है। उपाय के अनुष्ठान से व्यक्ति दुःख से बचा रहता है। इसी प्रकार दुःख से बचने के अभिलाषी व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि वह चिकित्साशास्त्र के चारों अंगों (रोग, रोग का कारण, आरोग्यलाभ, भैषज्यप्रयोग ) की तरह योगदर्शनोक्त चारों चीजों की वास्तविकता को समझें - ( १ ) दुःख क्या है ? (२) दुःख का कारण क्या है ? (३) उस कारण (द्रष्टा- दृश्य - संयोगबन्ध) के प्रतिकार ( नाश) के लिये उपाय क्या है ? (४) अविद्यादि के अभाव से पूर्वोक्त संयोग का छूटना दुःख से मुक्ति है, जिससे आत्मा (चितिशक्ति) केवल स्वरूप में स्थित हो जाती है। यही हेय, हेयहेतु, हान और हानोपाय, इन चार अंगों का तात्पर्य है । ' बौद्धदर्शन में दुःखमुक्ति रूप निर्वाण के उपाय इसी प्रकार जन्म-जरा-मृत्यु - व्याधिरूप दुःखमय संसारयात्री को दुःखमुक्तिरूप मोक्षयात्रा या मुमुक्षा - पूर्णता के लिए बौद्धदर्शन में भी इन्हीं चार अंगों को जानना अनिवार्य बताया है- (१) दुःख, (२) दुःख- समुदय, (३) दुःख-निरोध, और (४) दुःखं-हान। कर्मरूप रोग दुःख है। कर्म को यहाँ दुःखरूप बताया गया है। इसका तात्पर्य है - उक्त दुःख का स्वरूप क्या है ? यह जानना सर्वप्रथम आवश्यक है । फिर यह जानना चाहिए कि उस दुःख का समुदय (उत्पत्ति) किस-किस कारण से होता है या हुआ है ? तत्पश्चात् यह जानना है कि उक्त दुःख का निरोध कैसे हो सकता है ? यानी दुःखनिरोध या दुःख को आने से रोकना कैसे होता है ? तत्पश्चात् उक्त दुःख से मुक्ति (छुटकारा) अथवा दुःख का सर्वथा नाश कैसे होता १. 'योगदर्शन, विद्योदय भाष्य सहित' (डॉ. उदयवीर शास्त्री) से भावांश ग्रहण, पृ. ११२
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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