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________________ ॐ ८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ * आत्म-भावों) के अस्तित्व का रहना, कर्मपुद्गलों या विभाव पर-भावों से सर्वथा पृथक्-मुक्त हो जाना मोक्ष है। इसी तरह केवल आत्मा का अनुभव होना संवर है। चैतन्य (आत्मा) के साथ राग-द्वेष या कषाय का मिश्रण होना आम्रव है। आस्रव के द्वारा कर्मपुद्गलपरमाणु आकर्षित होते हैं, आत्मा के मूल गुणों-ज्ञान-दर्शनादि की क्षमता पर आवरण डालते हैं, ज्ञान और दर्शन को अपना कार्य पूर्णतया नहीं करने देते। चारित्र को विकृत, कुण्ठित और मूढ़ कर देते हैं, आत्मा के सहज आनन्द (आत्म-सुख) को विकृत करते हैं, आत्मा की शक्ति को कुण्ठित एवं अवरुद्ध कर देते हैं। कुछ कर्म आत्मा को सांसारिक सुख-दुःख का अनुभव कराते हैं। आत्मा के वास्तविक आनन्द का अनुभव नहीं होने देते। कई शुभाशुभ कर्म-परमाणु शरीर तथा शरीर से सम्बद्ध अवयवों तथा बातों की उपलब्धि के हेतु बनते हैं। इस प्रकार पहले आम्रव और फिर उससे निर्मित बन्ध पुण्य-पापकर्म (शुभाशुभ कर्म) द्वारा आत्मा को प्रभावित करते हैं। जब तक वीतरागता या केवलज्ञान की उपलब्धि नहीं हो जाती, तब तक यह कर्म का चक्र चलता रहता है। इस पर से यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्ममुक्ति के लिए कर्म, कर्म के हेतु (आस्रव और बन्ध), कर्ममुक्ति का हेतु (संवर-निर्जरा) एवं कर्ममुक्ति की अवस्था, इन चारों को सम्यक् प्रकार से जानना-समझना अत्यन्त आवश्यक है। पातंजल योगदर्शन में भी दुःखत्रय मुक्ति का उपाय पातंजल योगदर्शन में इन्हीं चारों को जानना सर्वथा दुःखमुक्ति के लिए आवश्यक बताया है-(१) हेय, (२) हेयहेतु, (३) हान, और (४) हानोपाय। अनागत (भविष्यकालिक) दुःख हेय है। द्रष्टा और दृश्य का संयोग हेयहेतु है। अविद्या, अविवेक या अदर्शन के अभाव से (द्रष्टा-दृश्य के) संयोग का अभाव हो जाना हान है। वही चैतन्यस्वरूप आत्मा का कैवल्य (मोक्ष) है। विवेक-ख्याति (भेदविज्ञान) प्रकृति-पुरुष की तथा अविप्लव (विप्लव = विघ्न-बाधा, अस्थिरता आदि दोषों से रहित) हानोपाय है।३ १. 'सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में' (युवाचार्य महाप्रज्ञ) से भावांश ग्रहण, पृ. ५१ २. (क) 'कर्मवाद' (आचार्य महाप्रज्ञ) से भावांश ग्रहण (ख) सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में' (युवाचार्य महाप्रज्ञ) से भावांश ग्रहण ३. (क) हेयं दुःखमनागतम्। (ख) द्रष्ट-दृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः। (ग) तदभावात् संयोगाभावो हानं, तद् दृशेः कैवल्यम्। (घ) विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः। -पातंजल योगदर्शन, पा. २, सू. १६-१७, २५-२६: भाष्य (उदयवीर शास्त्री)
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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