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________________ * कर्ममुक्ति के लिए चार तत्त्वों का ज्ञान आवश्यक मनोरोग चिकित्सा की इस घटना से स्पष्ट प्रतिफलित होता है कि मानसिक रोग से मुक्ति दिलाने के लिए भी मनोरोग चिकित्सक को रोग, रोग का कारण, रोग की चिकित्सा का हेतु ( उपाय ) और रोग से मुक्ति की अवस्था का ज्ञान आवश्यक है। मनोरोग चिकित्सा में रोग के निदान (कारण) का परिवर्जन ही रोग मुख्य चिकित्सा मानी गई है। की कर्मरोगमुक्ति के उपाय : संवर और निर्जरा कर्मविज्ञान में कर्मजन्य रोग का लक्षण और फिर निदान किया जाता है कि मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, अशुभ योग इन पंचविध कर्मबन्ध के कारणों में से कौन-से कारण से यह कर्मरोग है ? फिर उस कारण के निवारण का उपाय आजमाने का भी विधान कर्मविज्ञान ने बताया है। संक्षेप में कर्मरोग से मुक्ति के दो उपाय ( हेतु) बताये हैं-संवर और निर्जरा । संवर से नये आने वाले या आने की संभावना वाले कर्मों को रोका जाता है, कर्म के कारणों को सफल नहीं होने दिया जाता है। उस पर समभावपूर्वक धैर्य और शान्ति के साथ ब्रेक लगा दिया जाता है। आनव और बन्ध तथा संवर और निर्जरा क्या है ? ज्ञान आत्मा, का स्वाभाविक निजगुण है। वह आत्मा का स्वभाव है। स्वभाव या स्वरूप- रमण की अवस्था में विजातीय तत्त्व का कोई प्रवेश, प्रभाव या संक्रमण नहीं हो पाता। किन्तु जब आत्मा अपने स्व-भाव को - ज्ञाता-द्रष्टापन को भूलकर विभाव या पर-भाव को अपनाती है, तो अच्छे-बुरे, प्रिय-अप्रिय या राग-द्वेष का संवेदन होता है। संवेदन के द्वारा आत्मा का बाह्य जगत् के साथ सम्पर्क और संयोग होता है। अर्थात् जीव बाह्य जगत् से कुछ लेता है और उसे अपने साथ जोड़ता है। जोड़ने की इस विभाव धारा को हम 'आस्रव' कहते हैं और पर - भावों या विभावों के जुड़ने को कहते हैं - बन्ध । आत्मा के साथ जुड़ा हुआ पर-भाव या विभाव (विजातीय तत्त्व) परिपक्व होकर अपना प्रभाव दिखाता है, तब उसे कर्म (बन्ध) कहा जाता है। दूसरे शब्दों में आत्मा और कर्मपुद्गलों का जो संयोग है, वही बन्ध है, वही संसार है। पूर्वबद्ध कर्म जब अपना प्रभाव दिखाकर यानी अशुभ या शुभ फल भुगवाकर या तो स्वयं चला ( अलग हो जाता है अथवा प्रयत्न के द्वारा उसे आत्मा से पृथक् किया जाता है। स्पष्ट शब्दों में कहें तो आत्मा से कर्मपुद्गलों को पृथक् (विलग) करने का यह प्रयत्न निर्जरा है। बाह्य आभ्यन्तर तप से कर्म निर्जीर्ण (आंशिक रूप से क्षीण ) होते हैं। इस कारण तपस्या का ही दूसरा नाम निर्जरा है। कर्मों का पूर्णतया निर्जीर्ण होना मोक्ष है। मोक्ष का अर्थ हैकर्मों की सदा-सदा के लिए सर्वथा मुक्ति, केवल आत्मा (आत्म-गुणों या
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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