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________________ ॐ ६ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ उस रोगी का घनिष्ट मित्र उक्त वैद्यराज से मिला। उनसे अपने मित्र के रोग से मुक्ति दिलाने का रहस्य पूछा। पहले तो वैद्य जी आनाकानी करते रहे। किन्तु उक्त रुग्ण मित्र के अत्यधिक आग्रह के कारण कहा-मेरे पास कोई जड़ी-बूटी या जादू-टोना, यंत्र-मंत्र-तंत्र नहीं है। परन्तु मैंने तुम्हारे मित्र से बार-बार उसके जीवन की घटनाओं को कुरेद-कुरेदकर पता लगा लिया कि उसका रोग शारीरिक नहीं, मानसिक है। आपके मित्र पढ़ते हैं और अपने बड़े भाई-भाभी के साथ रहते हैं। इनके पड़ोस में एक व्यक्ति ऐसा है, जो इनके बड़े भाई के नाम टाइप किये हुए बेनामी पत्र भेजता है और उनको परेशान करता रहता है। उस परिचित पत्रलेखक पर आपके मित्र को बड़ा गुस्सा आता। यह सोचते रहते कि कौन-सा इल्जाम कैसे लगाकर उसे सीधा करूँ। इसी विचार से यह व्यर्थ में क्रोध करता था। यह बताते समय भी उग्र क्रोध के साथ टेबल पर हाथ पटकते हुए उसके मुँह से उग्र शब्द निकल रहे थे-“अगर वह रास्ते में मिल जाए तो उस (पत्रलेखक) की हड़ी-पसली ढीली कर दूंगा।” आप विश्वास नहीं करेंगे, परन्तु हमारे आयुर्वेदिक ग्रन्थों (सुश्रुतसंहिता, माधवनिदान आदि) में बताया है कि काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, मोह, मद, मत्सर आदि सभी विकार मानसिक रोगों को उत्पन्न करने वाले हैं। आपके मित्र के मानसिक रोग का कारण क्रोध था। वह पत्रलेखक पर बार-बार काल्पनिक क्रोध करके मन में घुटता रहता था। क्रोध से पित्त बढ़ता है। आपके मित्र द्वारा बार-बार क्रोध करने से पित्त की वृद्धि होती थी। पित्त का तीक्ष्ण गुण भी साथ-साथ बढ़ता, इसी कारण पेट में दर्द होता था। पित्तशमन के लिए जो भी बाह्य औषधियाँ दीं, उन्होंने काम नहीं किया; क्योंकि उस मानसिक रोग का असली कारण क्रोध था। मैंने आपके मित्र को उलाहना देते हुए कहा-“मैंने आपके रोग को समझ लिया है। कोई मनुष्य अगर नीच काम कर रहा हो तो उसकी ओर ध्यान नहीं देना चाहिए। आप अपने काम में मस्त रहिये। जो आदमी आपको हैरान करने का कार्य करता हो, आप उसे महत्त्व देकर व्यर्थ ही क्रोध करते हैं; मन में संताप करते हैं। इसी कारण आप पेटदर्द से पीड़ित रहते हैं। ऐसा करने से आपको हैरान करने वाले व्यक्ति को विशेष महत्त्व मिलता है। आप उसे मारने या बदला लेने का विचार ही मत कीजिए। ऐसा विचार करना अपनी दुर्बलता है। यदि आप क्रोध करना बंद नहीं करेंगे तो आपका यह रोग नहीं मिटेगा। अतः आप मेरी सलाह मानकर इसे भूल जाइए।' आपके मित्र मेरी सलाह मानकर उस बात को धीरे-धीरे भूल गए। उन्होंने क्रोध करना छोड़ दिया। फलतः उन्हें इस रोग से मुक्ति मिल गई। १. कल्याण' (मासिक) (गीता प्रेस, गोरखपुर) में प्रकाशित सच्ची घटना से, जून १९९४
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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