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ॐ कर्ममुक्ति के लिए चार तत्त्वों का ज्ञान आवश्यक * ५ 8
पश्चात् अपनी आत्मा शुद्ध-बुद्ध, कर्मों से मुक्त या कम से कम चार घातिकर्मों से मुक्त हुई या नहीं? इसकी जाँच-पड़ताल स्वयं करता है तथा उसका धर्मसंघ या संघनायक भी करता है। आत्मा कर्मों के रोग से सर्वथा मुक्त हो गयी है, यह जान लेने पर कर्म-चिकित्सा समाप्त हो जाती है। जब तक अन्तरात्मा छद्मस्थ (अल्पज्ञ) रहता है, संसारस्थ है, तब तक पूर्वोक्त चारों तत्त्वों को जानना और तदनुसार उपाय एवं आचरण करना अत्यन्त आवश्यक होता है।
तनाव आदि मानसिक रोग : कारण और निवारण आजकल तनाव, चिन्ता, व्यथा, विपत्ति, क्रोध, अहंकार, ईर्ष्या, भय आदि मानसिक रोग बहुत बढ़ गए हैं, लोग नासमझी के कारण इन और ऐसे कतिपय अन्य मानसिक रोगों को कायिक रोग समझकर डॉक्टरों-वैद्यों के पास जाते हैं। उनकी दवा और उपचार से जब रोग ठीक नहीं होता, तो निराश होकर बैठ जाते हैं। जैसे कायिक रोग-चिकित्सक पहले रोग और रोग के कारणों को जानकर फिर रोग से मुक्ति के लिए रोगी को औषध उपचार आदि बताता है, उसी प्रकार पूर्वोक्त मनोरोगों से मुक्ति के लिए भी मनोचिकित्सक पहले रोगी को कुरेद-कुरेदकर पता लगाता है कि इसके मनोरोग का वास्तविक कारण क्या है ? उसके पश्चात् ही वह उस मनोरोग के कारण का पता लगा पाता है। मनोरोग और उसके कारण का पता लगाने पर ही मनोचिकित्सक उस मनोरोग से छुटकारे का उपाय सोचकर तदनुसार अमल करता है और कराता है। इतना होने पर वह रोगी जब स्वस्थ हो जाता है, तब उसकी रोगमुक्त दशा का निरीक्षण वह, चिकित्सक, रोगी एवं उसके पारिवारिक जन करते हैं। . मनोरोग चिकित्सा के लिये भी चार बातों का ज्ञान आवश्यक
एक सच्ची घटना ‘कल्याण' में पढ़ी थी। एक भाई को उदरपीड़ा की व्याधि थी। उसने अनेक डॉक्टरों से इलाज कराया, मगर रोग ठीक न हुआ। एक वैद्यराज मिले। उन्होंने उसकी शारीरिक परीक्षा की। रोगी से अब तक ली हुई दवाओं के बारे में पूछा और अपनी बुद्धि से रोग का निदान करके दवा दी। उस दवा के कुछ दिन सेवन से कुछ आराम भी मिलने लगा। किन्तु कुछ दिनों बाद फिर पेटदर्द शुरू हो गया। वैद्य जी को सारी हकीकत बताई। वैद्यराज ने कुछ सोचकर कहा-“आप मेरा दवाखाना बंद होने से कुछ पहले अकेले ही यहाँ आइए।'' वैद्य जी के कहे अनुसार वह रुग्ण व्यक्ति प्रतिदिन रात को नियमित समय पर आता और काफी रात बीतने पर वापस घर लौट जाता। पूरे दो महीने इस प्रकार बीतने पर उसे पेटदर्द के रोग से मुक्ति मिल गई।