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________________ ॐ ४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ 8 कषाय, नोकषाय आदि राग-द्वेष के ही बेटे-पोते कर्म के दो बीज हैं-राग और द्वेष। कषाय, नोकषाय, आसक्ति-घृणा, प्रियता-अप्रियता का भाव, अच्छे-बुरे का प्रतिभाव, इष्ट-अनिष्ट के संयोग-वियोग में समता, सहिष्णुता, धैर्य और गाम्भीर्य का अभाव आदि सब राग और द्वेष के ही बेटे-पोते हैं। अतः जब तक राग-द्वेष को नहीं जाना जाता, तब तक राग और द्वेष से अथवा इन्हीं के सदृश अध्यवसायों (परिणामों) या संवेदना से होने वाली जीव की कर्मोपाधिक परिणतियों, अवस्थाओं, विसदृशताओं की तथा कर्मों के संयोग से आत्मा की ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, आनन्द और वीर्य की शक्ति की होने वाली कुण्ठित, आवृत, मूढ़ एवं सुषुप्त अवस्थाओं की जानकारी नहीं हो सकती। इसी प्रकार कर्मों के आस्रव और उसके उत्तरवर्ती बन्ध के मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग; ये पाँच मुख्य कारण बताये गए हैं। साथ ही पुण्य (शुभ) और पाप (अशुभ) कर्मों का वर्गीकरण करके उनके कारण भी बताये गए हैं। अतः कर्म, कर्मबन्ध, कर्मबन्ध के हेतु तथा कर्मबन्ध से सम्बन्धित विविध अवस्थाओं का परिज्ञान आवश्यक बताया है। तभी ज्ञानादि अनन्त चतुष्टय-सम्पन्न आत्मा से कर्मों को पृथक् करने के लिए व्यक्ति तत्पर हो सकता है और कर्मरोग की सम्यक् चिकित्सा कर सकता है। कर्ममुक्ति और उसके हेतु को जानना आवश्यक उपर्युक्त दोनों तत्त्वों-कर्मबन्ध और कर्मबन्ध के हेतु को जान लेने पर भी यदि कर्ममुक्ति और कर्ममुक्ति के हेतु को नहीं जाना तो कर्मों का आत्मा से उच्छेद करनाआत्मा से कर्मों का सम्बन्ध तोड़ना शक्य नहीं हो सकेगा। रोग एवं रोग के हेतु को जान लेने मात्र से क्या रोगमुक्ति हो सकती है? कदापि नहीं। रोग से छुटकारा पाने के लिए; रोगमुक्ति के लिए औषध, उपचार, तप-जपादि उपाय जब तक नहीं किये जाते, तब तक उस रोग से मुक्ति नहीं हो सकती। इसी प्रकार कर्मरोग से भी मुक्ति कर्मबन्ध और उसके हेतुओं को जान लेने मात्र से नहीं हो सकती। कर्ममुक्ति के लिए पूर्वोक्त दोनों तत्त्वों को जानने के अतिरिक्त कर्ममुक्ति के हेतु और सर्वथा कर्ममुक्ति की अवस्था का परिज्ञान भी आवश्यक है। जैसे-कुशल चिकित्सक रोग और रोग के कारणों को जान लेने के पश्चात् रोग से मुक्ति के लिए रोगी को औषध, उपचार, पथ्य-परहेज आदि बताता है। जब तक रोग नहीं मिट जाता, तब तक रोगी को औषधादि देता रहता है, किन्तु उक्त औषधोपचार देने के काफी अर्से बाद वह रोगी के शरीर की पूरी चैकिंग करता है कि रोगी उक्त औषधोपचार से, रोगमुक्त या स्वस्थ हुआ या नहीं? इसी प्रकार कुशल आत्म-साधक भी कर्म-रोग से मुक्ति के हेतुरूप वीतराग-प्ररूपित संवर और निर्जरा की, अमुक अवधि तक साधना करने के
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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