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________________ ॐ कर्ममुक्ति के लिए चार तत्त्वों का ज्ञान आवश्यक ३ ॐ आत्म-विकास में वाधक तत्त्वों को नहीं जान पाता, वह अपनी बाधाओं, आत्म-विकास में आने वाली रुकावटों को कैसे दूर कर सकता है ? यही कारण है कि 'सूत्रकृतांगसूत्र' में सर्वप्रथम कहा गया है “बुज्झिज्ज तिउट्टिज्जा, बंधणं परिजाणिया।'' -सर्वप्रथम वन्धन को समझो और समझकर फिर उसे तोड़ो। इसके साथ ही यह जिज्ञासा भी प्रगट की गई है कि “वह बन्ध (कर्मबन्ध) क्या है? भगवान महावीर ने बन्धन का क्या स्वरूप बताया है ? और किसको जानकर जीव बन्धन (कर्मबन्ध) को तोड़ पाता है।"१ ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान-परिज्ञा से तोड़ो यहाँ 'परिज्ञान' शब्द भी यह द्योतित करता है। जैनागमों की वृत्तियों में जहाँ-जहाँ परिज्ञा या परिज्ञान शब्द आया है, वहाँ अर्थ किया गया है-ज्ञपरिज्ञा से जानना और प्रत्याख्यान-परिज्ञा से उसे त्यागना। इसी कारण यहाँ कहा गया है कि सर्वप्रथम बन्धन (कर्मबन्ध) को ज्ञपरिज्ञा से भलीभाँति जानकर, फिर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उसे तोड़ने का पुरुषार्थ करो। यही कारण है कि कुशल अध्यात्म-साधक के लिए सर्वप्रथम कर्मों के आस्रव और बन्ध को जानना आवश्यक बताया है। परन्त सिर्फ बन्ध या कर्म को जानना ही पर्याप्त नहीं है। जब तक कर्मबन्ध या कर्मासव के हेतुओं = कारणों को नहीं जाना जाता, तब तक कर्मों के आस्रव को रोका एवं बन्ध को नष्ट नहीं किया जा सकता। अतएव कर्मास्रव और कर्मबन्ध (कर्म) को जानने के पश्चात् कर्मों के आस्रव और बन्ध के हेतुओं-कारणों अथवा बीजों को जानना जरूरी है। इसी आशय से कर्मविज्ञान के प्रथम भाग में कर्म के अस्तित्व, स्वरूप और प्रकार का सांगोपांग निरूपण किया गया है, इसी प्रकार कर्मविज्ञान के तृतीय, चतुर्थ और पंचम भाग में क्रमशः कर्मों के आसव, संवर, बन्ध, बन्ध के प्रकार, बन्ध के हेतु, बन्ध से सम्बन्धित उदय, उदीरणा, सत्ता, निधत्ति, निकाचना, संक्रमण, उपशामना, उद्वर्तना, अपवर्तना आदि कर्म-सम्बन्धित विषयों का विशद रूप से निरूपण किया गया है। अतः कर्म और कर्म के हेतु का परिज्ञान करने के लिए इन सब तथ्यों का परिज्ञान अपेक्षित है। तभी कुशल अध्यात्म-साधक, मोक्ष (कर्ममुक्ति) की प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ कर सकता है और उसमें सफल हो सकता है। १. (क) सूत्रकृतांगसूत्र, श्रु. १, अ. १, गा. १ (ख) किमाह बंधणं वीरी, किं वा जाणं तिउट्टइ। -सूत्रकृतांगसूत्र १/१/१
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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