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________________ ॐ २ कर्मविज्ञान : भाग ६ * साधक को चार तथ्यों का ज्ञान आवश्यक ___ जब कोई रोगी किसी प्रसिद्ध चिकित्सक के पास जाता है, तो चिकित्सक सर्वप्रथम यह जानने का प्रयत्न करता है कि उसका रोग क्या है ? रोग का निदान कर लेने के बाद वह उस रोग के कारणों की जाँच-पड़ताल करता है। फिर यह सोचता है कि इस रोग को मिटाने, रोगी को रोग से मुक्त करने के क्या-क्या उपाय हैं ? साथ ही वह यह भी चिन्तन करता है कि इस रोग को तात्कालिक रोकने, शरीर में प्रविष्ट होने से पहले रोकने के क्या-क्या उपाय हैं ? किस-किस उपचार से तथा पथ्य-पालन से रोगी शीघ्र ही निरोग हो सकता है ? इसके पश्चात् उस स्थिति . का भी आकलन करता है कि रोगमुक्ति के पश्चात् आरोग्य-सम्पन्नता एवं पूर्ण स्वस्थता का स्वरूप कैसा होता है ? इन चारों मुख्य तथ्यों को भलीभाँति जानकर निपुण चिकित्सक उस रोगी के रोग का इलाज (चिकित्सा) करता है। जिस प्रकार चिकित्सा-निपुण चिकित्सक रोग, रोग के हेतु, आरोग्य-प्राप्ति (रोगमुक्ति) और रोगमुक्ति के हेतु (आरोग्य हेतु), इन चारों का सम्यक् परिज्ञान करके व्याधि की चिकित्सा करता है, इसी प्रकार कर्मविज्ञान-निपुण साधक कर्म, कर्म के हेतु, कर्ममुक्ति और कर्ममुक्ति के हेतु को जानकर आत्मा कर्ममुक्ति की साधना में पुरुषार्थ कर सकता है। दूसरे शब्दों में निपुण साधक को बन्ध, बन्ध के हेतु, बन्धमुक्ति तथा बन्धमुक्ति के हेतु को जानना अनिवार्य है। सर्वप्रथम आस्रव और बन्ध को जानना आवश्यक ___कर्मों से मुक्ति के इच्छुक को सर्वप्रथम कर्म को यानी कर्मों के आस्रव और बन्ध को जानना आवश्यक है। कर्मों के आस्रव को जाने बिना कोई भी कर्ममुक्ति का साधक विविध रूप से विविध प्रकार से आत्मा में प्रविष्ट और आकृष्ट होकर आने वाले कर्मों का निरोध नहीं कर सकता। आम्रवद्वारों को बंद किये बिना प्रतिदिन और प्रतिरात्रि अनवरत कर्मों के आने (आस्रवों) का ताँता जारी रहेगा। जब व्यक्ति कर्मों के आने के स्रोतों को जान जाएगा तो उन्हें बंद भी कर सकेगा। यह बताया गया है कि प्राणियों के जीवन में राग-द्वेष तथा काम, क्रोध, अहंकार, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि के प्रवल आवेगों के कारण कर्मों के आस्रव निरन्तर चलते रहते हैं। ये और इस प्रकार के आवेग कर्मों के आने के द्वारों को खोलते रहते हैं। आस्रव के उन स्रोतों-आवेगों-द्वारों को बंद करने का विचार तभी पैदा होगा, जब व्यक्ति कर्मों के आनदों को जान लेगा। इसके साथ ही कर्मों के बन्ध को जानना अत्यावश्यक है, क्योंकि कर्मबन्ध ही व्यक्ति की आध्यात्मिक चेतना के विकास में बाधक हैं। जो • व्यक्ति अपने १. 'कर्मवाद' (आचार्य महाप्रज्ञ) से भावांश ग्रहण, पृ. ७४
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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