________________
ॐ २६८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ
है ही, एक न एक दिन यह छूटेगा ही, शरीर के मोह में पढूँगा तो कर्मवन्धन होगा, आत्मा कर्म से भारी होगी, मृत्यु होगी तो शरीर की होगी ही, आत्मा को तो कोई भी मार नहीं सकता। अच्छा है, धर्म की रक्षा के लिए मुझे अपने प्राणों को होमना पड़े।" अर्हन्नक और उसके साथियों को विचलित भयभीत करने के लिए दैत्य ने जहाज को आकाश में अधर उठा लिया और चाक की तरह घुमाने लगा। किन्तु अर्हन्नक अब भी शान्त व निश्चल था। दैत्य ने ललकारा, भर्त्सना की। आखिर उसकी दृढ़धर्मिता के आगे दैत्य पराजित हो गया। उसने दृढ़धर्मिता और परीक्षा में सफलता के लिए अर्हन्नक को धन्यवाद दिया और गुणगान एवं नमन करके वह वापस लौट गया। ___ इसी प्रकार धर्मरुचि अनगार ने भी अहिंसा धर्म (करुणा) पर दृढ़ रहकर नागश्री द्वारा दिये गए कड़वे व विषाक्त तुम्बे के साग को चींटियों की रक्षा के लिए भूमि पर न परठकर उदरस्थ कर लिया। प्रसन्नतापूर्वक मृत्यु का वरण किया। धर्मरुचि अनगार में धर्मानुप्रेक्षा जाग्रत हो चुकी थी।
यह है संवरा-निर्जरा में सहायिका द्वादश अनुप्रेक्षाओं का रेखाचित्र।'
१. (क) शान्तसुधारस अनुवाद, परिशिष्ट १0, धर्मभावना से सार संक्षेप, पृ. १२६-१३०
(ख) ज्ञाताधर्मकथासूत्र, अ. १६ से संक्षिप्त