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________________ भाव-1 - विशुद्धि में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ २६७ आत्म-धर्म के द्वारा आत्मा की सुषुप्त शक्तियों को जगाओ, अनुपलब्ध ज्ञानचेतना को उपलब्ध करो, संवर-निर्जरा के द्वारा पुराने कुसंस्कारों, खोटी आदतों, गलत स्वभाव को क्षीण करो, कषायों पर विजय प्राप्त करो । यह सब धर्म ही सिखाता है । भविष्य में आध्यात्मिक स्वाधीन सुखों के साथ-साथ अनायास ही भौतिक सुखों की प्राप्ति धर्म के प्रभाव से ही होती है। धर्म की अद्वितीय नौका में बैठकर संसार - सागर को पार किया जा सकेगा। धर्म की सम्यक् आराधना का तात्पर्य है - अतीत के प्रति जागरूक होकर अतीत के कुसंस्कारों के उदय को रोकना ( संवर करना) तथा वर्तमान में पूर्णतया सजग रहना।' जो पूर्वबद्ध अशुभ कर्मों का जत्था उदय में आकर हमें वर्तमान में किसी न किसी निमित्त से पीड़ित कर रहा है, उसको समत्व धर्म द्वारा भोगकर उन कर्मों को नेस्तनाबूद कर देना निर्जरा धर्म की आराधना है। इतना ही नहीं, काम, क्रोध, लोभ, क्षुद्र स्वार्थ, ईर्ष्या, वैर- विरोध, घृणा, विषमता, द्वेष, आवेश आदि से वर्तमान में होने वाले मानसिक रोगों (अधर्मों) का अन्त करने के लिए भी हमें धर्म का ही सहारा लेना होगा। तभी व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र स्वस्थ रह . सकते हैं। अतः धर्मानुप्रेक्षा में का साधक प्रति क्षण जागरूक रहकर शरीर, मन और वचन के द्वारा प्रवृत्ति से तुरंत आत्मा को रोके, कदाचित् और कोई चारा न हो तो उदासीनतापूर्वक, लाचारी से शुभ कर्मबन्धक ( पुण्य की ) प्रवृत्ति करे। अपने मन को सदैव शुद्धात्मलक्षी रखने का प्रयत्न करे । अर्हन्नक और धर्मरुचि : धर्मानुप्रेक्षा की प्रखर निष्ठा के ज्वलन्त उदाहरण चम्पापुरी निवासी कुमार अर्हन्नक ने सबसे विदाई लेकर अपने साथी व्यवसायी यात्रियों के साथ जहाज द्वारा समुद्रमार्ग से प्रस्थान किया। जहाज अभी चौथाई रास्ता ही तय कर पाया था कि अकस्मात् समुद्र में भयंकर वर्षा और तूफान आ गया। एक भयंकर आकृति द्रुतगति से जहाज की ओर लपकी । अर्हनक ने उपसर्ग आया जानकर उपसर्ग से निपटने के परमात्मा, गुरुदेव और धर्म की शरण ली। वह निर्भय होकर परमात्म-स्मरण में बैठ गया कायोत्सर्ग करके । दैत्य ने रौद्ररूप दिखाकर कहा - " अगर तुम सुख से जीना चाहते हो तो अपना धर्म छोड़ दो, कह दो धर्म मिथ्या है अन्यथा मौत के लिए तैयार हो जाओ।" अर्हन्नक ने चिन्तन किया-धर्म आत्मा का गुण है, वह शाश्वत है, मोक्षदाता है, आत्म-शोधक है, मेरा सर्वस्व प्राण है, इसे कैसे छोड़ दूँ ! शरीर भले ही जाए, यह तो नाशवान् .9. (क) 'संयम कब ही मिले ?' में धर्मानुप्रेक्षा के सन्दर्भ में धर्ममहिमा, पृ. ६६ (ख) 'अमूर्त चिन्तन' से भावांश ग्रहण, पृ. ८४
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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