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ॐ .२६६ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ 8
जीवनशुद्धि के दस सोपान हैं। 'द्रव्यसंग्रह टीका' के अनुसार-"८४ लक्ष योनियों, दुःखों को सहते और भ्रमण करते हुए इस जीव को जब इस शुद्ध धर्म की प्राप्ति होती है, तब वह विविध अभ्युदय सुखों को पाकर, तदनन्तर अभेद रत्नत्रयरूप धर्म की भावना के बल से अक्षय, अनन्त गुणों के स्थानभूत अर्हत्पद
और सिद्धपद को पाता है। इस कारण धर्म ही परम रस का रसायन है, धर्म ही गुण निधियों का भण्डार है, धर्म ही कल्पवृक्ष है, चिन्तामणि है, ऐसा अनुचिन्तन करना धर्मानुप्रेक्षा है।"
'सर्वार्थसिद्धि' में कहा गया है-“धर्म जिनोपदिष्ट अहिंसालक्षण हैं। सत्य उसका आधार है। विनय उसकी जड़ है। क्षमा उसका बल है। ब्रह्मचर्य से वह रक्षित है। उपशम की उसमें प्रधानता है। नियति उसका लक्षण है। अपरिग्रहवृत्ति उसका आलम्बन है। ऐसे पवित्र धर्म की प्राप्ति न होने से दुष्कर्म के विपाक से प्राप्त दारुण दुःख को भोगते हुए जीव अनादि संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। परन्तु जिसे इस सद्धर्म की प्राप्ति हो जाती है, उसे विविध अभ्युदयों की पूर्वक मोक्ष (सर्वकर्ममुक्ति) की प्राप्ति होना निश्चित है। ऐसा चिन्तन करना धर्म-स्वाख्यात तत्त्वानुप्रेक्षा है।” “निश्चयनय से-राग-द्वेषरहित परिणामों से शुद्ध आत्मा का ही नित्य चिन्तन करना धर्मानुप्रेक्षा है।"२ धर्मानुप्रेक्षक का विशिष्ट धर्म-चिन्तन
शुद्ध धर्म के अनन्त उपकारों को याद करो। अभी हमारे पास जो भी त्याग, तप, संयम और वैराग्य की शक्ति है, जो कुछ भी आत्मिक स्वाधीन सुख है, वह सब धर्म की देन है। केवल आत्म-धर्म की चेतना से व्यक्ति में तप, त्याग, प्रत्याख्यान, संयम, नियम आदि करने की क्षमता आती है। संसार के अन्य सभी शास्त्र भोग की बात सिखाते हैं, वे इन्द्रिय-विषयों के उन्मुक्त सेवन की, भोगों के साधन बटोरने की बात पर ही ज्यादा जोर देते हैं। आत्म-धर्म की चेतना ही एकमात्र त्याग, तप आदि की बात कहती है। विषय-कषायों का त्याग करके शुद्ध १. चतुरशीति-योनिलक्षेषु मदये... दुःखानि सहमानः सत् भ्रमितोऽयं जीवो यदा पुनरेवं
गुणविशिष्टस्य धर्मस्य लाभो भवति तदा विविधाभ्युदय-सुखं प्राप्य पश्चादभेदरत्नत्रयभावनाबलेनाऽक्षयानन्तसुखादिगुणास्पदमहत्-पदं सिद्धपदं च लभते। तेन कारणेन धर्म एव परमरस-रसायनं निधि-निधानं कल्पवृक्षः कामधेनुश्चिन्ता मणिरिति। इति संक्षेपण धर्मानुप्रेक्षागता।
__-द्र. सं. टीका ३५/१४५ २. अयं जिनोपदिष्टो धर्मोऽहिंसालक्षणः सत्याधिष्ठितो, विनयमूलः क्षमाबलो ब्रह्मचर्यगुप्तः
उपशम-प्रधानो नियति-लक्षणो निष्परिग्रहताऽलम्बनः। अस्यालाभादनादिसंसारे जीवाः परिभ्रमन्ति दुष्कर्म-विपाकजं दुःखमनुभवन्तः। अस्य पुनः प्रतिलाभे विविधाभ्युदयपूर्विका निःश्रेयसोपलब्धिर्नियतेति चिन्तनं धर्मस्वाख्याततत्त्वानुप्रेक्षा। -स. सि. ९७/४१९