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* भाव-विशुद्धि में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ ®. २६५ *
संवेग के विभिन्न प्रसिद्ध अर्थ और धर्मश्रद्धारूप
अनुप्रेक्षा का अनन्तर-परस्पर फल संवेग के निम्नोक्त अर्थ प्रसिद्ध हैं-(१) मोक्ष के प्रति सम्यक् उद्वेग = उत्कण्ठा, (२) मनुष्य-जन्म और देव-भव के सुखों के परित्यागपूर्वक मोक्षाभिलाषा, (३) नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव-भवरूप (जन्म-मरणादिरूप) संसार के दुःखों से नित्य डरना, (४) धर्म में, धर्मफल में अथवा दर्शन में हर्ष या परम उत्साह होना अथवा धार्मिक पुरुषों के प्रति अनुराग, पंचपरमेष्ठी के प्रति प्रीति होना, (५) तत्त्व, धर्म, हिंसा से विरति, राग-द्वेष-मोहादि से रहित देव (अर्हदेव) तथा निर्ग्रन्थ गुरु के प्रति अदल अनुराग होना। निष्कर्ष यह है कि "संवेग से अनुत्तर धर्मश्रद्धा प्राप्त होती है। अनुत्तर धर्मश्रद्धा से शीघ्र ही संवेग प्राप्त होता है। फलतः अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्टय का क्षय कर देता है। तत्सम्बन्धी नया कर्म नहीं बाँधता। तन्निमित्तक मित्थात्वविशुद्धि करके जीव सम्यग्दर्शन का आराधक हो जाता है। दर्शनविशोधि से आत्मा के विशुद्ध होने पर (आयुष्य के अल्प रह जाने से) जिनके कुछ कर्म शेष रह जाते हैं, फिर भी वे तीसरे भव में तो अवश्य ही सर्वकर्मों से मुक्तिरूप मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।" यह है धर्मश्रद्धारूप अनुप्रेक्षा का अनन्तर और परम्परागत फल।
धर्मानुप्रेक्षक क्या चिन्तन करे ? वस्तुतः जीव के शुद्ध उपयोग या शुद्ध परिणाम में धर्म के सभी लक्षण गतार्थ हो जाते हैं। क्योंकि धर्म आत्मा का सहज स्वभाव है। धर्म का साक्षात् लाभ हैचेतना का जागरण, अव्याबाध सुख (आनन्द) की उपलब्धि और आत्म-शक्ति की जागृति। क्षमा, मार्दव, आर्जव, पावित्र्य (शौच), सत्य, संयम, तप, त्याग, अकिंचनता और ब्रह्मचर्य, ये सब आत्मा के गुणरूप आत्म-धर्म हैं। इनके लिए किसी भी देश, वेष, धर्म, सम्प्रदाय, जाति, लिंग आदि का प्रतिबन्ध नहीं है। बशर्ते कि सद्धर्म के प्रति वफ़ादारी, सरलता और निष्ठा हो। धर्म आत्मा की शुद्धि करता है, अन्तःकरण को परिमार्जित करता है, जीवन को परिवर्तित करता है। धर्मानुप्रेक्षक इस प्रकार का चिन्तन करें और धर्म (अहिंसा-संयम-तपरूप) को उत्कृष्ट मंगल समझकर उसकी आराधना-साधना करें। क्षमादि दशविध धर्म
त फल।
१. देखें-उत्तराध्ययनसूत्र विवेचन (आ. प्र. स., ब्यावर), अ. २९, बोल १ में संवेग और उसके
फल की व्याख्या, पृ. ४८८ २. (क) शान्तसुधारस' में धर्मभावना की संकेतिका नं. १0 से भावांश ग्रहण, पृ. ४९ ... (ख) उत्तमः क्षमा-मार्दवार्जव-शौच-सत्य-संयम-तपस्त्यागाऽकिंचन्य-ब्रह्मचर्याणि धर्मः।
-तत्त्वार्थसूत्र ९/६