SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ २६४ * कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ तथा जन्म-मरणादि दुःखों से अमरत्व के शाश्वत सुख की ओर ले जाने वाला कोई है तो धर्म ही है। मोह के प्रगाढ़ अन्धकार को दूर करके सत्य का सूर्य प्रकाशित करने में धर्म ही समर्थ है। राग-द्वेष के विष को मिटाने के लिए धर्ममंत्र ही उपयोगी है। पूर्वबद्ध अनन्त कर्मदलों के जंगल को भस्म करने वाला धर्मरूपी. पावक ही है। सिद्धि-मुक्ति की साधना में परम सहायक धर्म ही है। समस्त कल्याण का असाधारण कारण भी धर्म ही है। ऐसे धर्म के आचरण से अशुभ कर्मों के कटते ही शुभ योग-संवर अथवा शुद्धोपयोगरूप धर्म के आते ही कर्ममुक्तिरूप मोक्ष का शाश्वत सुख प्राप्त होता है। दुःख के बादल बिखर जाते हैं। संकटों के समय सहन-शक्ति देने वाला धर्म ही है भंयकर वन में त्यक्त महासती सीता जी के पास कौन-सा तत्त्व था, जिसके सहारे वे वहाँ भी सुख के साधन प्राप्त कर सकी ? एकमात्र धर्मतत्त्व था। धर्म ने ही उनका योगक्षेम किया था। जिन पर मिथ्या कलंक लगाया गया था, इस कारण राजाज्ञा से जो शूली पर चढ़ाये गए थे, उस समय उसका कौन सहायक था? धर्म ही। धर्म के प्रभाव से ही शूली का सिंहासन बन गया था। धर्म के ऐसे-ऐसे अगणित चमत्कार हैं, जिन्हें देख-सुनकर भी धर्म पर श्रद्धा सुदृढ़ होनी चाहिए।' . भगवान महावीर से जब पूछा गया-“धर्मश्रद्धा से क्या प्राप्त होता है?" तब . उन्होंने यही कहा-"धर्मश्रद्धा से साता सुखों (सातावेदनीयकर्मजनित विषयसुखों) के प्रति आसक्ति से विरक्त हो जाता है। आगारधर्म (गृहस्थ सम्बन्धी प्रवृत्ति) का त्याग करता है और अनगार होकर (धर्म के प्रभाव से) छेदन-भेदन आदि शारीरिक तथा संयोगादि मानसिक दु:खों का विच्छेद कर डालता है और अन्त में अव्याबाध सुख को प्राप्त करता है।" परन्तु ऐसी श्रुतचारित्ररूप धर्म या रत्नत्रयरूप धर्म के प्रति श्रद्धा (धर्माचरण करने की तीव्र इच्छा) का मूल स्रोत है-संवेग।२ १. (क) देखें-वैदिक उपनिषद् वाक्य-"ॐ असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्माऽमृतंगमय।” (ख) 'संयम कब ही मिले?' में धर्मस्वाख्यातभावना के सन्दर्भ में दिये गये निर्देश, पृ. ६६-६७ २. (क) (प्र.) धम्मसद्धाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? (उ.) धम्मसद्धाए णं साया-सोक्खेसु रज्जमाणे विरज्जइ। आगारधम्मं च णं चमइ। अणगारिए णं जीवे सारीर-माणसाणं दुक्खाणं छेयण-भेयण-संजोगाइणं वोच्छेयं करेइ। अव्वाबाहं च सुखं निव्वत्तेइ। (ख) संवेगेणं अणुत्तरं धम्मसद्धं जणयइ। अणुत्तराए धम्मसद्धाए संवेगं हव्वभागच्छइ॥ -उत्तरा., अ. २९, बोल ३, १
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy