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ॐ भाव-विशुद्धि में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ * २६३. ॐ
निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म का अन्तर बताते हुए कहा है-निश्चय से–“संसार में गिरते हुए आत्मा को जो धारण = रक्षण करे, ऐसा विशुद्ध ज्ञान-दर्शन लक्षण वाला निज-शुद्धात्मा की भावना-स्वरूप धर्म है; व्यवहार से उसकी साधना के लिए इन्द्र-नरेन्द्रादि द्वारा वन्दनीय पद पर पहुँचने वाला उत्तम क्षमा आदि दस प्रकार का धर्म है।
धर्म क्या है, क्या करता है ? 'परमात्मप्रकाश' के अनुसार-निज शुद्ध भाव का नाम ही धर्म है। ज्ञान, दर्शन, आत्मिक-सख और आत्म-शक्ति, ये चारों आत्मा के स्वभाव हैं-स्वगुण हैं। परन्तु सांसारिक जीवों में ये गुण सुषुप्त, आवृत, कुण्ठित और विकृत हैं। इन्हें जाग्रत, अनावृत, शुद्ध और क्रियान्वित करने के लिए आचार्य समन्तभद्र ने कहासम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र, ये तीनों समन्वित रूप में होने पर धर्म हैं, अर्थात् कर्मक्षय अथवा कर्मनिरोध करने वाले हैं। आत्मा का शुद्ध भावरूप धर्म ही संसार में पड़े हुए जीवों की चतुर्गतिक संसार दुःखों से रक्षा करता है। - सम्यक्तप सम्यक्चारित्र में गतार्थ हो जाता है। ये तीनों मिलकर मोक्ष (कर्ममुक्ति) के मार्ग = साधन या उपाय हैं। धर्म त्याग-प्रत्याख्यान, बाह्यान्तर तप सिखाता है। विषयभोगों या विषयसुखों की उपलब्धि धर्म नहीं कराता, वह इनसे विरक्ति, निवृत्ति या त्यागनिष्ठा सिखाता है। धर्म आफतों के तूफानों में अडिग रहने की शक्ति देता है। दारुण दुःखों को सहन करने का मनोबल और आत्म-बल धर्म से प्राप्त होता है। संकटों में भी प्रसन्नतापूर्वक समभाव में रहने की. शक्ति धर्म से मिलती है। धर्म अपकारी और हिंसक का हृदय बदलने के लिए सहन-शक्ति और धैर्य देता है।
धर्म ही संवर, निर्जरा और मोक्ष का अवसर देने में समर्थ 'मानव-समुदाय को असत् से सत् की ओर, अर्थात् मिथ्यात्व से सम्यक्त्व की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर, अर्थात् अज्ञानतिमिर से ज्ञानालोक की ओर १. निश्चयेन संसारे पतन्तमात्मानं धरतीति विशुद्ध-ज्ञान-दर्शन-लक्षणनिजशुद्धात्मभावनात्मको
धर्मः। व्यवहारेण तत्साधनार्थं देवेन्द्र-नरेन्द्रादि-वन्द्य-पदे धरतीत्युत्तमक्षमादिः . दशप्रकारो धर्मः।
-द्रव्यसंग्रह टीका ३५/१०१/८ २. (क) भाउ विसुद्धणु अप्पणउ धम्मु भणेविणु लेह। चउगह दुक्खहँ जो धरइ जीउ परंतर एहु॥
-प. प्र. मूल २/६८ (ख) सद्वृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा बिदुः। __-रत्नकरण्डकं श्रावकाचार ३ (ग) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्ष (सर्वकर्ममुक्ति) मार्गः। -तत्त्वार्थसूत्र १/१