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२६२ कर्मविज्ञान : भाग ६
स्वभाव से डिगाने के लिए उपसर्ग के झंझावात आ रहे हों, आत्म-गुणों से . च्युत करने के लिए प्रलोभनों के बंडल फेंके जा रहे हों अथवा परीषहों का दल सदलबल आ रहा हो, उस समय कौन ऐसा तत्त्व है, जो शान्ति, धैर्य, समत्व और सहिष्णुता के साथ इन सबसे आत्मा की रक्षा करके जीवन को आत्म- गुणों में, आत्म-स्वभाव में स्थिर कर सकता है ? वह है - एकमात्र धर्म |
धर्म के नाम पर चलने वाले धर्म-भ्रम
आजकल लोग धर्म का नाम लेते ही उसका अर्थ या तो सम्प्रदाय, मत, पंथ या एक मार्ग समझते हैं अथवा धार्मिक क्रियाकाण्डों को धर्म समझते हैं। अपने सम्प्रदाय, मत, पंथ या मार्ग के नाम से आडम्बर, प्रोपेगेंडा, प्रचार-प्रसार, भीड़ इकट्ठी कर लेने या अमुक क्रिया करने - कराने को धर्म का रूप दे देते हैं । परन्तु धर्म कोई सम्प्रदाय, पंथ, मत या मार्ग नहीं है, अमुक मत, पंथ, सम्प्रदाय, मार्ग का अनुसरण करने मात्र से धर्म नहीं हो जाता, बल्कि कई बार साम्प्रदायिकता के व्यामोह में आकर तथाकथित सम्प्रदाय, मत, पंथ या मार्ग के अनुयायी परस्पर एक-दूसरे की निन्दा, ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्य बढ़ाते हैं । परस्पर सिरफुटौव्वल या मुकद्दमेबाजी करके शुद्ध धर्म को तो धक्का देकर निकाल देते हैं और धर्म के नाम से अठारह पापस्थानों में से हिंसा, द्वेष, पर-परिवाद, पैशुन्य, मायामृषावाद, क्रोध, मान (अहंकार) आदि पापस्थानों का सेवन करने से नहीं चूकते। अनेकान्तवाद, सामायिक, संवर (आम्रव निरोध) और निर्जरा को केवल कहने की वस्तु बना देते हैं । चलते हैं - एकान्तवाद ( हठाग्रह, पूर्वाग्रह और दुराग्रह) पर, वैषम्यवृद्धि के मार्ग पर, अशुभास्रवों को उत्तेजित करने के पथ पर और कर्मसंवर-निर्जरारूप धर्म के बदले शुभ कर्म (पुण्य) की पगडंडी पर । और उसे ही धर्म का बाना पहना देते हैं । धर्म का वास्तविक स्वरूप क्या है ?
है और अशुभ
'प्रवचनसार' कहा गया है - " पर के प्रति शुभ परिणाम पुण्य परिमाम है - पाप । और जो दूसरे के प्रति प्रवर्तमान नहीं है, ऐसा शुद्ध परिणाम, आगम में दुःख (कर्म) क्षय का कारण बताया है।" तथा धर्म वह है, जो मिथ्यात्व व रागादि में नित्य संसरण करने रूप भावसंसार से प्राणियों को निकालकर निर्विकार शुद्ध चैतन्य ( आत्मा ) में धारण कर दे । " १ ' द्रव्यसंग्रह टीका' में
१. (क) सुहपरिणामो पुण्णं, असुहो पावत्ति भणियमण्णेसु ।
परिणामो णण्णगदो दुक्खक्खयकारणं समये ॥ (ख) मिथ्यात्व - रागादि-संसरणरूपेण भावसंसारे प्राणिनमुद्धृत्य
धर्मः ।
- प्रवचनसार मूल १८१ निर्विकार-शुद्ध-चैतन्ये धरतीति - प्रवचनसार ता. वृ. ७/९/९