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संवर और निर्जरा के परिप्रेक्ष्य में
मैत्री आदि चार भावनाओं का प्रभाव HAMAKAM
मैत्री आदि चार भावनाओं की उपयोगिता क्या ? पिछले दो प्रकरणों में आत्म-मैत्री के सम्बन्ध में विशद रूप से चर्चा की गई है। अब हम इस प्रकरण में विश्वमैत्री आदि चार भावनाओं द्वारा आत्मा को कर्मों से मुक्त कैसे किया जा सकता है ? इन चारों भावनाओं से राग-द्वेष से रहित होकर समताभाव में स्थित होने से अपनी आत्मा पर अन्य आत्माओं पर क्या प्रभाव पड़ता है? अपनी आत्मा विश्वमैत्री आदि चार भावनाओं से कितनी शुद्ध, शान्त, सम, तपोयुक्त एवं तेजस्वी बन जाती है? इन चारों भावनाओं की कर्ममुक्ति की साधना में कितनी उपयोगिता और अनिवार्यता है ? ये जीवन को प्रभावशाली, विश्वव्यापक, सर्वभूतात्मभूत एवं समर्थ तथा निर्भय बनाने में कितनी चमत्कारी हैं ? इन सब तथ्यों पर प्रकाश डालेंगे।
... समूहबद्ध होने पर अनेक दोषों का उत्पन्न होना सम्भव
जैनदर्शन की दृष्टि से प्रत्येक आत्मा एक स्वतंत्र इकाई है, यह पारमार्थिक सत्य है, किन्तु व्यावहारिक सत्य यह है कि वह अपने समुदाय का एक अंग है। मनुष्य मानव-जाति का या मानव-समाज का एक विशिष्ट चिन्तनशील विकसित चेतना वाला व्यक्ति है। व्यक्ति और समाज की अथवा व्यक्ति और समष्टि की अपनी-अपनी सीमा हैं। जब व्यक्ति व्यक्ति रहता है, तब बाहर के किसी प्राणी के साथ क्रूरता, असहिष्णुता, वैरवृत्ति, विरोध, वध आदि का प्रसंग व्यक्त रूप में नहीं आता। परन्तु जब व्यक्ति समूह के साथ मिल जाता है या समाजबद्ध हो जाता है, तब अथवा प्राणीमात्र के साथ उसका वास्ता एक या दूसरे रूप में पड़ता है, . एक-दूसरे से सहयोग लेना-देना पड़ता है, तब ये और ऐसे ही अन्य दोष उभर आते हैं। जहाँ दो होते हैं, वहाँ शुभ भावनाओं का सम्बल न हो तो संघर्ष, कलह, वैर-विरोध, शत्रुता, स्वार्थान्धता आदि दोष आते देर नहीं लगती है।
१. 'शब्दों की वेदी : अनुभव का दीप' से भाव ग्रहण, पृ. ३६६