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ॐ भाव-विशुद्धि में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ ॐ २५९ ॐ
गया है कि “जो जीव (अन्तिम समय में) मिथ्यादर्शन में अनुरक्त है, निदान (नियाणा) से युक्त है और कृष्णलेश्या में अवगाढ़ (प्रविष्ट) होकर या हिंसक होकर जो मरते हैं, उन्हें बोधि बहुत ही दुर्लभ होती है।" अतः इस महान् उपलब्धि में समस्त उपलब्धियाँ समाविष्ट हो जाती हैं। निष्कर्ष यह है कि मनुष्य-जन्म तो दुर्लभ है ही। मनुष्य-जन्म प्राप्त होने पर आरोग्यादि दस तथा सम्यग्दर्शन, अनिदान, अहिंसा, शुभलेश्या, कषाय-मन्दता आदि कई अटपटी घाटियाँ पार होनी बहुत मुश्किल हैं। इन घाटियों को पार कर लेने के बाद दुर्लभतम बोधि के दर्शन होते हैं। अधिकांश लोगों को तो मृत्यु की घड़ी तक बोधि प्राप्त नहीं होती, इसलिए वे मिथ्यादृष्टि या विराधक होकर समाधिमरण नहीं प्राप्त कर पाते। संसार में दूसरी सब उपलब्धियाँ यहीं धरी रह जाती हैं, मरने के बाद सब कुछ यहीं छूट जाती हैं, क्योंकि वे अपनी सम्पत्ति नहीं हैं। बोधिं ही अपनी (आत्मिक) सम्पदा है, आत्मज्ञान है और आत्मरमणता है। चूंकि आत्मा ज्ञानमय है, इसलिए ज्ञान का अस्तित्व आत्मा के साथ निरन्तर अखण्ड रहने से बोधि का अस्तित्व भी अखण्ड है। इस अपेक्षा से बोधि का फलितार्थ सम्यग्ज्ञान होता है। आत्मा का अस्तित्व ही बोधि का अस्तित्व है। अतएव वह मरने के बाद भी पर-भव में साथ रहती है।
.... बोधि के विविध अर्थ और विशेषार्थ, परमार्थ किन्तु बोधि का अर्थ सिर्फ ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, किन्तु सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र की आराधना की यथार्थ दृष्टि ही बोधि का पर्याप्त अर्थ है। इसीलिए ' 'द्रव्यसंग्रह टीका' में कहा गया है-पहले नहीं प्राप्त हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की प्राप्ति होना बोधि कहलाती है। कई आचार्य सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्व को बोधि कहते हैं। किन्तु सम्यग्दृष्टि की प्राप्ति बोधि का प्रथम सोपान है। सम्यग्दृष्टि की अभिव्यक्ति के पाँच चिह्न शास्त्रों में बताये हैं-(१) शम (कषायों का उपशमन), (२) संवेग (मोक्ष के प्रति तीव्र रुचि), (३) निर्वेद (संसार, शरीर
और भोगों के प्रति वैराग्य), (४) अनुकम्पा (दुःखित जीवों के प्रति दयाभाव), (५) आस्तिक्य (देव-गुरु-धर्म, आत्मा, परमात्मा, कर्म आदि के प्रति दृढ़ श्रद्धा)। बोधि का एक अर्थ-जागरण, प्रबुद्ध होना भी है। परन्तु निश्चयनय की दृष्टि से सम्यक् आत्मबोध होना बोधि है। इस दृष्टि से आत्मा को सम्यक् रूप से जानना, देखना और उसके स्वरूप में रमण करना बोधि का परमार्थ है अथवा जो साधन (रत्नत्रयरूप धर्म या धर्म के साधन) या पथ आत्मोपलब्धि का अथवा जो (समस्त कर्मक्षयरूप) मोक्ष की प्राप्ति का हेतु बने वह भी बोधि है। अतः बोधिलाभ की सफलता इसी में है कि विषयसुख से विरक्त होकर साधक में अति दुर्लभ ज्ञान, सम्यक् तप, सद्धर्म और सुखपूर्वक समाधिमरण की प्राप्ति की भावना हो। ऐसा