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ॐ २६० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ ®
चिन्तन करना ही बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है। शुद्ध आत्मा के ज्ञानस्वरूप निर्मल धर्म-शुक्लध्यानरूप परम समाधि प्राप्त हो, ऐसी भावना निरन्तर करना ही बोधिदुर्लभभावना है। बोधि का व्यवहारदृष्टि से यह अर्थ भी किया जाता हैपरमात्मतत्त्व के प्रति दृष्टि का सम्यक् खुलना, गुरुतत्त्व की सच्ची पहचान और धर्मतत्त्व का हृदयंगम होना। इन सब वस्तुओं का प्राप्तकर हो जाना हमारा परम सौभाग्य है, यह अपूर्व लाभ है। बोधि कोई द्रव्य नहीं है, पदार्थ नहीं है, यह तो मूल्यवान् अनुपम और अति दुर्लभ भाव है, इसे अनन्त-अनन्त जीवों में से थोड़े-से जीव प्राप्त कर पाते हैं। जो इस परम भाव को प्राप्त कर पाते हैं, उनमें से बहुत थोड़े जीव इसे सुरक्षित रख पाते हैं। बहुत-से लोग तो इसे व्यर्थ समझकर खो देते हैं। परन्तु यह दिव्यरत्न है, यह जिसके पास होता है, उसे किसी भी गति में जाना पड़े, चिन्ता नहीं होती। बोधि सरल नहीं है, सस्ती नहीं है, माँगने से नहीं मिलती। बहुत ही श्रद्धा-भक्ति-निष्ठापूर्वक परमात्मा के चरणों में तीव्र भावपूर्वक याचना करने से मिलती है। इसलिए हम प्रति दिन परमात्मा से प्रार्थना करते हैं
___ “आरुग्ग-बोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं दितु।" -प्रभो ! मुझे शारीरिक-मानसिक-आध्यात्मिक आरोग्य, बोधिलाभ और उत्तम । समाधि प्रदान करें। भगवान ऋषभदेव के ९८ पुत्रों द्वारा की गई बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा
भरत चक्रवर्ती कुछ प्रदेश के सिवाय छह खण्ड भूमि पर विजय प्राप्त करके जब अयोध्या में वापस लौटे, तब अपनी आज्ञा मनवाने के लिये अपने ९८ भाइयों के पास एक-एक दूत भेजा। दूतों ने जाकर उनसे कहा-“यदि आप अपने राज्य की रक्षा करना चाहते हैं तो भरत महाराज की आज्ञा शिरोधार्य कर उनकी अधीनता स्वीकार कर लें।" दूतों की बात सुनकर ९८ ही भाई एक जगह एकत्रित होकर विचार-विमर्श करने लगे-"जब पिताजी (भगवान ऋषभदेव) ने हमें अपने-अपने हिस्से का पृथक-पृथक राज्य दे दिया है, तब भरत का इसमें क्या
१. (क) 'शान्तसुधारस' में बोधिदुर्लभभावना, संकेतिका नं. १२ से भाव ग्रहण, पृ. ६१
(ख) 'अमूर्त चिन्तन' से भावांश ग्रहण, पृ. ८७ (ग) उत्तराध्ययनसूत्र, अ. ३६, गा. २५७, २५९
(घ) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणाम प्राप्त-प्रापणं बोधिः। -द्रव्यसंग्रह टीका ३५/१४४ २. 'संयम कब ही मिले?' में बोधिदुर्लभभावना के सम्बन्ध में निर्देश, पृ. ६८-६९ ३. आवश्यकसूत्र में चतुर्विंशतिस्तव (लोगस्स) के पाठ का एक सुवाक्यरूप मंत्र