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२५८ कर्मविज्ञान : भाग ६
प्रकृति-भद्रता, मनुष्यता आदि प्राप्त करना उत्तरोत्तर दुर्लभ है, ये प्राप्त हुए बिना बोध मनुष्य से दूरातिदूर होती जाती है।' इसीलिए भगवान महावीर ने पावापुरी के अपने अन्तिम प्रवचन में कहा था- इस जगत् में प्राणियों को चार अंग मिलने अति. दुर्लभ हैं - (१) मनुष्यत्व, (२) धर्मश्रवण, (३) श्रद्धा, और (४) संयम में पराक्रम । बहुत से व्यक्ति मनुष्य जन्म और मनुष्यता प्राप्त कर लेने पर भी सम्यक्त्व से वंचित रह जाते हैं। वे जीवनभर मिथ्यात्व मद और मोहमाया में फँसे रहते हैं। इसलिए मिथ्यात्व को नष्ट करने वाला धर्मश्रवण - शास्त्रश्रवण अथवा महान् चारित्रात्माओं का सत्संग न मिलने से वे बोधिरत्न नहीं पाते । कदाचित् धर्मश्रवण भी कर लें तो उस पर उनकी श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं होती । कदाचित् श्रद्धा आदि भी हों जाए, फिर भी शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्धश्रद्धा, पूर्वाग्रह, हठाग्रह आदि के कारण सम्यक्त्व-प्राप्ति (बोधि - प्राप्ति) के लिए पराक्रम करना उनके लिए दुर्लभः होता है। कदाचित् कोई मनुष्य रत्नत्रययुक्त संयम भी अंगीकार कर ले तो भी तीव्र कषाय करे, निर्दोष-निरतिचाररूप से पालन न करे, विराधक हो जाएं तो किया कराया, काता पींजा सब कपास हो जाता है, यानी फिर से दुर्गति में पड़कर. बोधिलाभ से वंचित हो जाता है। मनुष्य जन्म में भी शुभ परिणामों से मरकर देव बन जाए, कदाचित् वहाँ सम्यक्त्व भी प्राप्त कर ले तो भी मनुष्य - जन्म ( मनुष्यगति) के बिना उसे उत्तम बोधि का पूर्ण लाभ या फल नहीं मिल पाता, क्योंकि मनुष्यगति में ही सम्यक् तपश्चरण, महाव्रत, धर्म-शुक्लध्यान तथा कर्ममुक्ति में साधक संवर, निर्जरा और मोक्ष का उपार्जन हो सकता है, अन्य गतियों में नहीं । २ इन सब कारणों से बोधिलाभ को सर्वदुर्लभों से दुर्लभ कहा गया है। इसलिए ऐसी दुर्लभतम बोधि को प्राप्त करने और उसकी प्राणप्रण से रक्षा करने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए।
बोधि : जीवन का परम ध्येय : किसको सुलभ, किसको दुर्लभ ?
इसलिए मानव जीवन का परम ध्येय है - बोधि प्राप्त करना । जिसने बोधि को पा लिया, उसने उससे पहले की सब चीजें पा लीं, किन्तु जिसने बोधि नहीं प्राप्त की, उसने अन्य सब कुछ पाकर भी कुछ नहीं पाया। 'उत्तराध्ययनसूत्र' में बताया
१. (क) बहुकम्मलेवलित्ताणं बोही होइ सुदुल्लहा तेंसिं। तेसिं पुण दुल्लहा बोही।
ख
२. (क) चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जंतुणो ।
माणुसतं सुई सा संजमम्मि य वीरियं ॥
- उत्तराध्ययन २/१५
- वही ३६/२५५, २५७
-वही ३/१
(ख) उत्तराध्ययन, अ. ३, गा. ८-११
(ग) देखें - कार्तिकेयानुप्रेक्षा में बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा के सन्दर्भ में, गा. २९०-२९९