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________________ ® भाव-विशुद्धि में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ ® २५७ * बोधिदुर्लभतम क्यों और कैसे ? उनसे पूछा गया बोधि क्यों दुर्लभतम वस्तु है? 'शान्तसुधारस' में इसका समाधान दिया गया है-“अनादिकालिक निगोदरूपी अन्धकूप में पड़े हुए तथा निरन्तर जन्म-मरण के दुःख से पीड़ित जीवों के वे शुद्ध (बोध) परिणाम कैसे हो सकते हैं कि वे उस अन्धकूप से बाहर निकल सकें ? (घुणाक्षरन्यायेन) वहाँ से किसी प्रकार से निकल जाने पर भी वे जीव स्थावरयोनि में जन्म लेते हैं, वहाँ भी मूर्च्छित अवस्था में एकमात्र स्पर्शेन्द्रिय के सहारे वे कदापि बोधिलाभ नहीं प्राप्त कर सकते। उन पृथ्वीकायिकादि स्थावर जीवों के लिए त्रसपर्याय का प्राप्त होना दुर्लभ है। कदाचित् त्रसपर्याय प्राप्त कर ले तो भी जीव विकलेन्द्रिय अवस्था में उत्कृष्ट करोड़ पूर्व तक रहता है। इस अवधि में भी उसे बोधि नहीं मिल पाती। उनके लिए विकलेन्द्रिय से निकलकर पंचेन्द्रियता पानी कठिन है। कदाचित् पंचेन्द्रियता प्राप्त कर लें तो भी वे असंज्ञी होते हैं। वहाँ मन न होने से बोधि तो दूर रही, स्व-पर का भेद भी नहीं जानता। कदाचित् संज्ञी पंचेन्द्रियता प्राप्त हो जाए, तो भी तिर्यंच होता है।' उसमें क्रूर तिर्यंच हो, तो उसके परिणाम नित्य क्रूर रहते हैं, उसे सम्यक्बोधि प्राप्त होना अति कठिन है। क्योंकि क्रूर परिणामी जीवों को अपनी अशुभ लेश्या और अशुभ परिणामों के कारण भयंकर त्रासदायक, शारीरिक-मानसिक तीव्र दुःखों से प्रचुर नरक में वास मिलता है, जहाँ उत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम तक अति तीव्र दुःखाक्रान्त नारक जीव को बोधि मिलनी दुष्कर है। नरक से निकलकर फिर तिर्यंच गति प्राप्त होने पर उसे विवशतापूर्वक पराधीन होकर अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं, बोधि तो उसके पास भी नहीं फटकती। मनुष्य-जन्म पाना उसके लिए बहुत दुर्लभ होता है, जिसमें बोधि प्राप्त होने के चांस हैं। दुर्लभ मनुष्य-देह प्राप्त होने पर भी मिथ्यादृष्टि बनता है या मिथ्यात्वियों का कुसंग पाता है तो अनेक पापकर्मों से लिप्त हो जाता है। इसीलिए भगवान महावीर ने कहा-“अनेक कर्मों के लेप से लिप्त उन जीवों को बोधि अति दुर्लभ होती है।" मनुष्यपर्याय प्राप्त करके भी आर्य क्षेत्र, उत्तम कुल में जन्म, धन-सम्पन्नता, इन्द्रियों की पूर्णता, निरोग शरीर, दीर्घायुष्कता तथा १. अनादौ निगोदान्धकूपे स्थितानामजस्रं जनुर्मृत्यु-दुःखार्दितानाम्। परिणामशुद्धिः कुतस्तादृशी स्याद्, यया हन्त ! तस्माद् विनिर्यान्ति जीवाः॥२॥ ततो निर्गतानामपि स्थावरत्वं-त्रसत्वं पुनर्दुलभं देहभाजाम्। वसत्वेऽपि पंचाक्ष-पर्याप्तसंज्ञि-स्थिरायुष्यवद् दुर्लभं मानुषत्वम्॥३॥ -शान्तसुधारस, बोधिदुर्लभभावना २-३ २. (क) तदेतन्मनुष्यत्वमाप्यापि मूढो, महामोह-मिथ्यात्व-मायोपगूढ़ः। भ्रमन्दूरमग्नो, भवागाधगर्ते, पुनः क्व प्रपद्येत तद् बोधिरत्नम्॥४॥ -वही, श्लो. ४ (ख) देखें-कार्तिकयानुप्रेक्षा में बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा के सन्दर्भ में, गा. २८४-२९१ ।।
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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