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२५६ कर्मविज्ञान : भाग ६
निश्चयदृष्टि से 'द्रव्यसंग्रह टीका' के अनुसार- आदि, मध्य और अन्तरहित ( शाश्वत ), एकमात्र शुद्ध, बुद्ध स्वभाव वाला निज आत्मा ही लोक (निश्चयत: लोक) है; आत्मा की अपेक्षा से पर वस्तु उसके लिए अलोक है। अतः निश्चय लोकरूपं शुद्ध आत्मा या परमात्मा में जो अनन्तचतुष्टयादि गुणों या स्वरूप का अवलोकन है, वही निश्चय लोक है। अलोक की ओर लक्ष्य देने की जरूरत नहीं । जैसे दर्पण में सभी वस्तुएँ यथावत् दिखाई देती हैं, किन्तु दर्पण उसमें लेपायमान नहीं होता, दर्पण पर उनका कुछ भी प्रभाव नहीं होता, वैसे ही अपने आत्म-स्वरूप लोक में स्थिर होते ही केवलज्ञान ( अथवा सम्यग्ज्ञान) रूपी दर्पण में सभी पर-वस्तुएँ अनायास ही दिखाई देती हैं, परन्तु वह उसमें लिप्त या प्रभावित नहीं होता । ऐसा चिन्तन करना निश्चय से लोकानुप्रेक्षा है। ? इस प्रकार की निश्चय लोकानुप्रेक्षा से कर्मों की निर्जरा होकर, अन्त में जीव सर्वकर्ममुक्त हो जाता है।
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(११) बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा : एक चिन्तन
इस जगत् में दुर्लभतम वस्तु बोधि है
इस संसार में सदा से यह जिज्ञासा रही है कि दुर्लभतम क्या है ? स्थूलदृष्टि लोगों ने धन-सम्पत्ति, ऐश्वर्य, जमीन-जायदाद, भोग्यसुख- सामग्री, प्रतिष्ठा आदि पदार्थों को ही दुर्लभ माना और उसके लिए उन्होंने अनेक लड़ाइयाँ लड़ीं, रक्तपात किया, वैर परम्परा चलाई, इन तथाकथित दुर्लभ वस्तुओं में से किसी वस्तु के प्राप्त हो जाने पर भी वह उसके पास स्थायी न रही। ये सारी दुर्लभ मानी जाने. वाली वस्तुएँ या तो चोरी, डकैती आदि द्वारा जबरन छीन ली गईं या युद्ध में विजित के द्वारा हस्तगत कर ली गईं अथवा व्यापार आदि में घाटा लगने के कारण समाप्त हो गईं या किसी असाध्य बीमारी आदि के कारण स्वयं की मृत्यु हो जाने पर यहीं पड़ी रहीं, साथ में नहीं गईं। परन्तु जिन वीतराग सर्वज्ञ महर्षियों ने अन्तर की गहराइयों में उतरकर इस प्रश्न पर सूक्ष्मतम दृष्टि से अनुभव करके उक्त जिज्ञासा का समाधान किया। उन्होंने कहा - "इस जगत् में बोधि परम दुर्लभ है। "
१. ( क ) आदि-मध्यान्तमुक्ते शुद्ध-बुद्धैकस्वभावे परमात्मनि सकल- विमल - केवलज्ञान-लोचनादर्शे बिम्बानीव शुद्धात्मादिपदार्था लोक्यन्ते, दृश्यन्ते, ज्ञायन्ते, परिच्छिद्यन्ते यतस्तेन कारणेन स एवं निश्चयलोकः । तस्मिन्निश्चयलोकाख्ये स्वकीयशुद्धपरमात्मनि अवलोकनं वा स निश्चयलोकः । - द्रव्यसंग्रह टीका ३५/१४३ (ख) 'मोक्षशास्त्र' अथवा 'तत्त्वार्थसूत्र' (गुजराती टीका) (रामजी माणेकचंद दोशी), अ. ९, सू. ७ में लोकानुप्रेक्षा पर विवेचन, पृ. ६९४