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8 भाव-विशुद्धि में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ ॐ २५५ ॐ
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के जीव के रूप में अपने आप को रखकर विचार करों, इन पंच स्थावरकायिक जीवों के जीवन की कल्पना करो कि वहाँ कौन-सा सुख मिलता है इन्हें, बेचारे मूक और परवश होकर पड़े रहते हैं; एक हम हैं कि वैषयिक भौतिक सुखों के भिखारी बनकर अपने अतीत के जीवन को नजरअंदाज कर रहे हैं। उसे दृष्टिसमक्ष रखकर सोचो-बिना मन का मूढ़ जीवन ! केवल स्पर्शेन्द्रिय पर आधारित जीवन भी अनन्त बार हमने पाया है; वहाँ भी जन्म-मरण किया है और अव्यवहार-राशि में भी हमने मूर्छित रूप से अनन्तकाल बिताया है, वहाँ से भवितव्यता के योग से व्यवहार-राशि में आए, तो भी निगोदरूप में। वहाँ भी मूर्छित अवस्था बनी रही। एक श्वासोच्छ्वास में साढ़े सत्रह बार जन्म-मरण ! अहो, कितना दुःखपूर्ण जीवन था अतीतकाल में हमारा ! अब मनुष्य-जीवन मिला तो भी हम जरा-से दुःख से कतराते हैं ! तप और परीषह-सहन द्वारा संवर-निर्जरा करने से. भी घबराते हैं ! इस प्रकार लोकानुप्रेक्षण-लोकानुचिन्तन करने से जीवन में संवेग, वैराग्य, तप, संयम की वृद्धि की प्रेरणा मिलने से सहज ही निर्जरा का उपार्जन किया जा सकता है।' ..
शिवराजर्षि को लोकस्वरूपभावना से मोक्ष की उपलब्धि ___ गंगानदी के तट पर बालतप करते हुए शिवराज ऋषि को विभंगज्ञान उत्पन्न हो गया था, जिससे वे ७ द्वीप और ७ समुद्र पर्यन्त देख सकते थे। अपने ज्ञान को परिपूर्ण समझकर वे प्ररूपणा करने लये-लोक में ७ द्वीप और ७ ही समुद्र हैं। इसके आगे कुछ नहीं है। एक दिन भगवान महावीर स्वामी की प्ररूपणा'स्वयंभूरमण समुद्र तक असंख्य द्वीप और समुद्र हैं'; को सुनकर शिवराज ऋषि के मन में शंका, कांक्षा आदि कलुषित भाव उत्पन्न हुए, जिससे उनका विभंगज्ञान नष्ट हो गया। तदनन्तर वह श्रमण भगवान महावीर के पास आया। उनका धर्मोपदेश सुनकर उसने तापसोचित भण्डोपकरणों का त्याग कर भगवान के पास आहती दीक्षा अंगीकार की। ‘लोक में द्वीप और समुद्र असंख्यात हैं', भगवान की इस प्ररूपणा पर उनको दृढ़ श्रद्धा और विश्वास हो गया। फिर लोकानुप्रेक्षा के परिप्रेक्ष्य में सतत ध्यान एवं अनुचिन्तन करने से एवं उत्कृष्ट तप का आराधन करने से चार घातिकर्मों का क्षय होने पर उन्हें केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त हो गए। अन्त में, शेष चार अघातिकर्मों का क्षय करके सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष प्राप्त हो गया। यह हैलोकानुप्रेक्षा की सर्वोत्तम उपलब्धि।२
१. 'संयम कब ही मिले?' (आ. भद्रगुप्तविजय जी) से भाव ग्रहण, पृ. ६३-६५ २. भगवतीसूत्र, श. ११, उ. ९ से संक्षिप्त