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________________ ॐ २५४ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ * लोकों में एक बार नहीं, असंख्य बार जन्म-मरण पाया है। इसलिए मुझे ऐसा प्रयत्न करना चाहिए, जिससे इन तीनों लोकों में जन्म-मरण से छुटकारा पाकर लोक के अग्रभाग में पहुँचकर मुक्तात्मा के रूप में रह सकूँ। जब हमारा जीव देवलोक के भौतिक सुखों की ओर आकर्षित हो, ललचाए, तब ऊर्ध्वलोक का इस दृष्टि से विचार करना-अरे जीव ! तूने देवलोक में क्या-क्या नहीं देखा? कौन-सा सुख नहीं भोगा? उन क्षणिक दिव्यसुखों को भोगकर भी तृप्ति नहीं हुई ! इस मर्त्यलोक के सुख तो तुच्छ हैं, असार हैं, घृणित हैं। इन सुखों की ओर क्यों ललचा रहा है ? इस प्रकार चिन्तन करने से वैषयिक भौतिक सुखों का आकर्षण समाप्त हो जाएगा।" __ आगमों से यह तथ्य स्पष्ट है कि “ऊपर-ऊपर के देवलोकों में वैषयिक सुख तो एक से एक बढ़कर मिलते हैं, किन्तु उन देवों की विषयासक्ति घटती जाती है, भोगोपभोग का समय भी उनका अल्प-स्वल्प है। हमें उन उच्च देवलोकों से प्रेरणा लेनी चाहिए कि ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियाँ ऊर्ध्वमुखी बनती जाएँ, त्यों-त्यों हमारी विषयासक्ति, शारीरिक सुखों की स्पृहा घटती जानी चाहिए। हमें ऊर्ध्वारोहण करना है।" “देव अविरत होते हैं। किन्तु नौ ग्रैवेयक और पंच अनुत्तरदेव अविरत होने के बावजूद कितने उपशान्त कषाय और निर्विकार होते हैं। 'तत्त्वार्थसूत्र' के अनुसार वे गति, शरीर, परिग्रह एवं अभिमान से न्यून होते हैं। उनकी लेश्या विशद्ध होती है। ऐसी स्थिति सर्वविरतिधर साधुवर्ग और देशविरतिधर श्रावकवर्ग को क्या यह नहीं सोचना चाहिए कि हमें कितना निर्विकार और विशुद्ध होना चाहिए? अविरत अनुत्तरदेव भी तत्त्वचिन्तन में ही अपना जीवनकाल व्यतीत करते हैं, जबकि विरत साधु-श्रावकवर्ग का जीवन कैसे चिन्तन में व्यतीत होता है ?" "जब यह विचार हमें व्याकुल करे कि ‘ऐसे दुःख तो अब असह्य हो उठे हैं। तब अधोलोकवर्ती नारकों के दुःखों का चिन्तन करना। नरक के जीव परवश होकर कितने घोर दुःखों को सहन करते हैं। हमारा जीव भी इन वेदनाओं को सह आया है। इस मानव-जीवन में तो उन भयंकरतम दुःखों का एक अंश भी नहीं है, फिर भी हम अपने दुःखों की शिकायत जहाँ-तहाँ करते रहते हैं।"१ गाँवों में, नगरों में या जंगल में पशुओं को हम देखते हैं। इन पशुओं को देखकर क्या तुम्हें कोई तात्त्विक विचार आता है? क्या यह याद आता है कि मेरा जीव भी इन सब पशुयोनियों में जन्म-मरण कर आया है ? पशुओं के दीन-हीन, पराधीन जीवन भी हमें एक बार नहीं, अनन्त बार मिले हैं ! अगर फिर से पशुसृष्टि में नहीं जाना हो तो तुम्हारे लिए पशुवृत्ति का त्याग कर देना अनिवार्य है। १. 'संयम कब ही मिले?' में लोकस्वरूपभावना के सन्दर्भ में उद्बोधन, पृ. ६३-६४
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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