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ॐ २४२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ
के मोर्चे पर डटा रहकर पूर्वोक्त आम्रवों तथा राग-द्वेषादि के आक्रमणों को विफल कर देता है। संवरानुप्रेक्षा का सुफल हरिकेशबल मुनि ने प्राप्त किया ___संयमी साधक अपनी संवरानुप्रेक्षा-साधना पर डटा रहकर दृढ़ निश्चय के साथ आगे बढ़ता है, उन सभी आस्रवों और वृत्तियों पर प्रहार करता है, उन्हें भीतर प्रविष्ट नहीं होने देता। पूर्व-जन्म में किये हुए जाति-कुल मद के कारण चाण्डालकुलोत्पन्न कुरूप बेडौल हरिकेशबल मुनि का जगह-जगह अपमान, तिरस्कार, बहिष्कार होता था। किन्तु संवरानुप्रेक्षा की दृष्टि से भावना की कि पूर्व-जन्म के अशुभ कर्मों (आनवों) के कारण ही मुझे यह कटु फल भोगना पड़ रहा है। अतः अब ऐसा पुरुषार्थ करूँ, ताकि इन सभी आसवों का आना सदा के. लिये रुक जाए। ऐसी प्रबल संवर-भावना के कारण वे मुनि धर्म में प्रव्रजित हो गए। पंचमहाव्रत, पंचसमिति, तीन गुप्ति, परीषह-सहन, दशविध श्रमणधर्म आदि की साधना से आते हुए कर्मों का निरोध (संवर) करने लगे और उत्कट तपश्चर्या से सर्वकर्मों का क्षय करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गए। यह है-संवरानुप्रेक्षा का सुफल !२
१. (क) संजमेणं अणण्हयत्तं जणयइ।
-उत्तराध्ययन, विवेचन (आ. प्र. सं., व्यावर), अ. २९, बोल २६,.पृ. ५०१-५०२ (ख) अमूर्त चिन्तन' से भाव ग्रहण, पृ. ७०-७१ २. देखें-उत्तराध्ययनसूत्र का १२वाँ हरिकेशीय अध्ययन