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ॐ आत्म-रमण में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ 8 २४१ ॐ
मनोगुप्ति से सर्वांगीण संवर की प्राप्ति योगशास्त्र में मनोगुप्ति का लक्षण भी इसी प्रकार का दिया गया है-"समस्त कल्पनाओं से मुक्त होना और समभाव में प्रतिष्ठित होकर आत्म-स्वरूप में रमण करना मनोगुप्ति है। मनोगुप्ति में अकुशल मन का निरोध और कुशल मन की प्रवृत्ति होती है, यही एकाग्रता है, यही अशुभ योग-संवर है। अशुभ अध्यवसायों से मन की रक्षा भी संवर का रूप है। साथ ही समता = आत्म-स्वरूपरमणता भी भाव-संवर है।"१
संयम से संवर की उत्कृष्ट आराधना मनोगुप्ति का एक परिणाम, जो संयम की आराधना बताया है, वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि भगवान महावीर से जब पूछा गया कि संयम से जीव क्या प्राप्त करता है? तो उन्होंने कहा-संयम से जीव आम्रव-निरोध करता है। अर्थात् संयम का फल अनास्रव है। जिसमें संयम की साधना परिपक्व हो गई, उस व्यक्ति में पर-भाव का सहसा प्रवेश नहीं हो सकता। १७ प्रकार के संयम से युक्त मानव बाहरी प्रभावों से, भय और प्रलोभन से विचलित नहीं होता है। संयम की शक्ति जब बढ़ जाती है तो षट्कायिक जीवों के प्रति संयम के अतिरिक्त अजीवकाय, प्रेक्षा, उपेक्षा आदि पर भी संयम सध जाता है। इच्छाओं का निरोध हो जाता है। शीत-उष्ण, निन्दा-प्रशंसा, मान-अपमान, ताड़ना-तर्जना आदि प्रसंगों पर भी वह समभावपूर्वक सहन कर लेता है। फिर उसे मन, वचन और काया की माँग विचलित नहीं कर पाती। पंचेन्द्रिय विषयों का यथावश्यक उपभोग करते हुए भी वह राग-द्वेष नहीं करता, समभावी ज्ञाता-द्रष्टा रहता है। इस प्रकार संयम की साधना परिपक्व होते ही सर्वांगीण (द्रव्य-भाव उभय) संवर प्राप्त हो जाता है। निष्कर्ष यह है कि संयम उसकी साधना है, संवर है उसकी निष्पत्ति। संयम-साधना से आत्म-शक्ति का जागरण हो जाता है, फिर वह साधक मन की मांगों को पूरा करने में अपनी शक्ति स्खलित नहीं करता। शक्ति जाग्रत हो जाने पर अन्तर के आम्रव, आन्तरिक वृत्तियाँ, भीतर के आवेग, प्रमाद, विषय, कषाय, राग-द्वेष, मूर्छा आदि विकार संघर्षरत हो जाते हैं। उनके साथ साधक की संवरनिष्ठ आत्मा को सुदृढ़ बनकर जूझना पड़ता है। संयमी एवं संवरनिष्ठ साधक अनुप्रेक्षा
१.. (क) विमुक्तकल्पनाजालं, समत्वे सुप्रतिष्ठितम्।
आत्मारामं मनस्तज्जैर्मनोगुप्तिरुदाहृता॥ (ख) उत्तराध्ययन, विवेचन (आ. प्र. स., ब्यावर) से, पृ. ५१३
-योगशास्त्र