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ॐ २४० * कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ
अयोग-संवर आदि के लिए सुगम उपाय
प्रश्न होता है-अयोग-संवर आदि के लिए कौन-कौन-से उपाय साथक हैं? भगवान महावीर से कायगुप्ति के बारे में जब पूछा गया तो उन्होंने कहा-कायगुप्ति से संवर होता है। संवर से काय (साथ ही मन-वचन) गुप्त होकर जीव फिर से होने वाले पापानव का निरोध करता है। शरीर को अशुभ चेष्टाओं-प्रवृत्तियों को हटाकर शुभ प्रवृत्तियों में लगाना कायगुप्ति है। इसके दो परिणाम हैं-कायिक प्रवृत्ति से होने वाले आस्रव का निरोधरूप संवर तथा हिंसादि आम्रचों का निरोध। वैसे देखा जाए तो मन और वचन ये दोनों काया के ही अंग हैं। कायगुप्ति का विशेषार्थ भी यही है-काया की सुरक्षा। काया से साधक इतना सुरक्षित हो जाता है . कि काया से (मन-इन्द्रियाँ और वाणी तथा शरीर से) भीतर आने वाले के लिए प्रविष्ट होने की कोई गुंजाइश नहीं रहती। भीतर केवल आत्मा रहती है, आत्मा के सिवाय फिर कुछ भी नहीं रहता। यदि मन को शरीर से पृथक् समझें तो मनोगुप्ति का अभ्यास किया जाए। इन्द्रियाँ तो मन के अधीन हैं, वाणी भी मन के अधीन है। इन्द्रियों और वचन के साथ संघर्ष करने की अपेक्षा मन के साथ युद्ध करना आवश्यक है। जिनसे कर्मों का आगमन (आस्रव) होता है, वे हैं राग-द्वेष, प्रियता-अप्रियता, मूर्छा-घृणा आदि द्वन्द्व, इन्हें मन में प्रवेश न करने दें। मन को शान्त, स्थिर रखने पर या आत्म-चिन्तन में संलग्न रखने पर चित्त, बुद्धि और हृदय भी शान्त होंगे। फिर उसके समक्ष कोई भी रूप, रस आदि इन्द्रिय-विषय आएगा तो वह सिर्फ ज्ञेय होगा, राग-द्वेषादि से विकृत नहीं होगा। मनोगुप्ति से मन एकाग्र (एक शुभ या शुद्धोपयोग में स्थिर) होकर साधक मनोगुप्त (मन का सुरक्षक) होने से संयम का आराधक हो जाता है।'
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(ख) 'अमूर्त चिन्तन' से भाव ग्रहण, पृ. ७३ (ग) आसव और संवर के विशेष स्पष्टीकरण के लिये देखें-फर्मविज्ञान, भा. ३ 'आम्रव
और संवर' १. (क) (प्र.) कायगुत्तयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ?
(उ.) कायगुत्तयाए णं संवरं जणयइ। संवरेणं कायगुत्ते पुणो पावासवनिरोहं करेइ। ....... -उत्तराध्ययन, अ. २९, बोल ५६ का विवेचन (आ. प्र. स., व्यावर), पृ. ५१३ (ख) 'अमूर्त चिन्तन' में 'संवरभावना' से भावांश ग्रहण, पृ. ६८-६९ (ग) (प्र.) मणगुत्तयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ? (उ.) मणगुत्तयाए णं जीवे एगग्गं 'जणयइ। एगग्गचित्ते णं जीवं मणगुत्ते संजमाराहए
भवइ।