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________________ आत्म-रमण में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ २३९ का सम्यक् प्रयत्न कर। ऐसा करने से तू अकल्पित (आशातीत) और अबाधसिद्ध हित को प्राप्त होगा।'' ‘कार्तिकेयानुप्रेक्षा' में भी सम्यग्दर्शन, देशव्रत, महाव्रत, कषायजय तथा योग का अभाव, ये सभी संवर के नाम हैं । त्रिगुप्ति, पंचसमिति, दशविध उत्तम धर्म, द्वादशानुप्रेक्षा, परीषहजय तथा उत्कृष्ट पंचविध चारित्र, ये भी संवर के विशेष हेतु हैं । ' संवर-साधना का चरम शिखर : अयोग - संवर भगवान महावीर ने संवर - साधना का चरम शिखर 'अयोग' को बतलाया है। जहाँ योग (मन-वचन-काया का व्यापार ) समाप्त हो जाता है, वहाँ पूर्ण और सर्वांगीण संवर हो जाता है। सभी प्रकार के संयोगों - सम्बन्धों से वास्ता छूट जाता है। इस अयोग-संवर में बाहर से कुछ भी लेना या पाना नहीं है, सब कुछ अपने अंदर है, आत्मा अपने आप में परिपूर्ण है। सारे सम्बन्ध काट डालने के बाद ही अयोग-संवर की शैलेशी (निष्कम्प) अवस्था आती है, जिसमें आत्मा के पूर्ण विकास, पूर्ण शुद्ध परमात्मपद की उपलब्धि हो जाती है। अयोग-संवर प्राप्त होते ही आत्मा के साथ पर-भावों और विभावों का या पुद्गलों का जो सम्बन्ध था, वह बिलकुल विच्छिन्न हो जाता है। इसके पश्चात् वह सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाता है। कर्म की स्थिति आ जाती है। अयोग-संवर घटित होते ही उससे पहले के मनःसंवर, इन्द्रिय-संवर, प्राण-संवर, वचन-संवर सम्यक्त्व - संवर, व्रत-संवर, अप्रमाद-संवर, अकषाय-संवर आदि सब संवर हो जाते हैं । २ १. ( क ) येन येन य इहा श्रव - रोधः सम्भवेन्नियतमौपयिकेन । आद्रियस्व विनयोद्यतचेतास्तत्तदान्तरदृशाः परिभाव्य॥१॥ 'संयमेन विषयाऽविरतत्वे, दर्शनेन वित्तयाभिनिवेशम् । ध्यानमार्त्तमथरौद्रमजस्रं चेतसः स्थिरतया च निरुन्ध्याः॥२॥ क्रोधं क्षान्त्या मार्दवेनाऽभिमानं हन्या मायामार्जवेनोज्ज्वलेन । लोभं वारांराशि-रौद्रं निरुन्ध्या, सन्तोषेण प्रांशुना सेतुनेव ॥ ३ ॥ गुप्तिभिस्तिसृभिरेवमजय्यान्, त्रीन् विजित्य तरसाऽधमयोगान् । साधु-संवरपथे प्रयतेथा, लप्यसे हितमनाहतसिद्धम् ॥४ ॥ - शान्तसुधारस, संवरभावना १-४ (ख) सम्मत्तं देसवयं महव्वयं तह जओ कसायाणं । एदे संवरणामा जोगाभावो तह च्चेव ॥ ९५ ॥ समदी धम्म अणुवेक्खा, तह परिसहजओ वि। उक्कि चारित्तं संवरहेदू विसेसेण ॥९६॥ (क) जया जोगे निरुभित्ता, सेलेसिं पडिवज्जइ । तया कम्मं खवित्ताणं. सिद्धिं गच्छइ नीरओ ॥ - कार्तिकेयानुप्रेक्षा ९५-९६ - दशवैकालिक, अ. ४, गा. २३
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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