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________________ * २३८ कर्मविज्ञान : भाग ६ ज्ञानरमणता के लिये मन-वचन-काय की प्रत्येक प्रवृत्ति के साथ मन को न जोड़ना, किसी भी प्रवृत्ति पर अच्छाई-बुराई, प्रियता-अप्रियता, मनोज्ञताअमनोज्ञता, अनुकूलता-प्रतिकूलता, राग-द्वेष, आसक्ति घृणा आदि कर्माम्रवभावों का संवेदन करना, केवल ज्ञाता द्रष्टा बने रहना । तात्पर्य यह है कि संवरानुप्रेक्षा के लिए अधिकाधिक शुद्ध चैतन्य, शुद्ध आत्मज्ञान के क्षणों में रहने का अभ्यास करना चाहिए, जहाँ सिर्फ ज्ञान हो, संवेदन न हो । ' शुद्ध उपयोग में रहने से संवर की स्थिति सुदृढ़ जैनाचार्यों ने इसे शुद्ध उपयोग में रहना कहा है। जब साधक चैतन्य के शुद्ध उपयोग में - शुद्ध अनुभव में होता है, तभी संवर की स्थिति होती है । यही संवर की साधना है। शुद्ध चैतन्य के अनुभव की सतत स्थिति बनी रहने से संवरानुप्रेक्षा पुष्ट होती है। इस प्रकार संवर के आते ही = चैतन्य के शुद्ध उपयोग में रहते ही - कोई भी आनवद्वार खुला नहीं रहेगा, सभी आम्रवद्वार बंद हो जाएँगे । संवरानुप्रेक्षक यह तथ्य हृदयंगम कर लेता है कि कर्मों के जितने सम्बन्ध - बन्ध हमने स्थापित किये हैं, वे सब के सब शुद्ध चैतन्य की विस्मृति = अजागृति के कारण हुए हैं। जब-जब चैतन्य की विस्मृति हुई कि कोई न कोई कर्मपुद्गल हमारी आत्मा के साथ आ जुड़ता है और आत्मा के लिये अनेक समस्याएँ खड़ी कर देता है । २ व्यवहारदृष्टि से आम्रवों का निरोध संवर व्यवहारदृष्टि से आम्रवों के निरोध को संवर कहा गया है। मिथ्यात्व आदि पाँच आनवद्वार हैं, ये जब-जब आत्मा की अजागृति - असावधानी या शुद्ध चैतन्य की विस्मृति से मौका पाकर घुसने लगें, तब तुरन्तं ही उनको प्रवेश करने से रोकना व्यवहार से संवर है । 'शान्तसुधारस' में संवरभावना के परिप्रेक्ष्य में कहा गया है - जिस-जिस उपाय से आम्रव का निरोध होना अवश्य सम्भव है, उस-उस उपाय को तू अन्तर्दृष्टि से जान, अपना चित्त उसके लिए तैयार करके आदर के साथ स्वीकार कर । इन्द्रिय-विषयों और हिंसादि - अविरति का निग्रह संयम के द्वारा, मिथ्या - अभिनिवेश का निरोध सम्यग्दर्शन के द्वारा तथा आर्त्त- रौद्रध्यान का निवारण चित्त की सतत स्थिरता से कर । क्रोध को क्षमा से, मान को मृदुता से, माया को उज्ज्वल सरलता से समुद्र की भाँति विशाल और रौद्र लोभ का सन्तोष जैसे समुन्नत सेतु द्वारा निरोध कर । जिन्हें जीतना अशक्य लगता है, उन त्रिविध अशुभ योगों को तू तीन गुप्तियों के द्वारा शीघ्रता से जीतकर संवर मार्ग पर चलने १. (क) 'संयम कब ही मिले ?' में संवरभावना से भाव ग्रहण, पृ. ५९ (ख) 'अमूर्त चिन्तन' से भावांश ग्रहण, पृ. ६५ २. 'अमूर्त चिन्तन' में संवरभावना से भावांश ग्रहण, पृ. ६५, ७३
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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