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* आत्म- रमण में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ २३७
भेदविज्ञान सिद्ध होने पर शुद्ध चैतन्यानुभूति
इसके लिए आत्मा (चेतन) से अनात्मा (अचेतन) का भेदविज्ञान सिद्ध होना आवश्यक है। चेतन और अचेतन ( कर्मपुद्गलों या शरीरादि) को जब व्यक्ति एक समझने लगता है, दोनों में एकरस हो जाता है, तब कर्मबन्धन तीव्र - तीव्रतर होता जाता है। कषाययुक्त आत्मा ही कर्मास्रव के कारण दोनों को एकरस करती है । परन्तु जब भेदविज्ञान सिद्ध हो जाता है, तब कर्मपुद्गलों के ( या कर्मशरीर के ) साथ आत्मा एकरस नहीं होती, तब उसे शुद्ध चैतन्य की अनुभूति होती है । यही निश्चयदृष्टि से संवर है। इसी दृष्टि से भगवान महावीर ने कहा - " आया संवरे । ” ( शुद्ध आत्मा ही संवर है ।) 'बारस अणुवेक्खा' में भी कहा है- “परमार्थनय से जीव (आत्मा) के शुद्ध भाव ( में रमणता ) ही संवर है । इसलिए संवर का विकल्प न करके आत्मा का ही नित्य चिन्तन करना चाहिए ।" १ 'द्रव्यसंग्रह टीका' में भी इसी का समर्थन करते हुए कहा गया है - " जैसे समुद्र पर चलता हुआ जहाज छिद्रों के बन्द हो जाने के कारण अपने भीतर पानी के न घुसने से निर्विघ्नतया वेलापत्तन ( बंदरगाह ) तक पहुँच जाता है, इसी प्रकार जीवरूपी जहाज भी अपने शुद्ध आत्मज्ञान के बल से इन्द्रिय आदि आम्रव छिद्रों के मुँह बंद हो जाने पर कर्मरूपी जल के न घुसने से केवलज्ञानादि अनन्तगुणरत्नों से परिपूर्ण मुक्तिरूपी वेलापत्तन को निर्विघ्नतापूर्वक प्राप्त कर लेता है। अतः संवरानुप्रेक्षा के लिये शुद्ध आत्मज्ञानरूप संवर के गुणों का चिन्तन करना चाहिए ।"२
आत्मज्ञानरमणता ही संवर का विधेयात्मक मार्ग
निष्कर्ष यह है कि "ज्ञानसिद्धो न लिप्यते । " - ज्ञानसिद्ध (भेदज्ञानसिद्ध अथवा आत्मज्ञानसिद्ध) आत्मा कर्मों से लिप्त नहीं होती। अतः 'ज्ञानरमणता' ही संवर का विधेयात्मक मार्ग है। इसके विपरीत पुद्गलरमणता कर्मों के आश्रव का मार्ग है।
१. (क) 'संयम कब' ही मिले ?' (आ. भद्रगुप्तविजय जी) से भाव ग्रहण. पृ. ५९ (ख) 'अमूर्त चिन्तन' से भाव ग्रहण. पृ. ६५ (ग) भगवतीसूत्र
(घ) जीवम्स संवरणं परमट्ठणएण सुद्धभावादो। संवरभावविमुक्कं अष्पाणं चिंतये णिच्चं ॥
- बारस अणुवेक्खा ६५ २. यदां तदेव जलपात्रं छिद्रस्य झम्पने सति जलप्रवेशाभावे वेलापत्तनं प्राप्नोति तथैव जीवजलपात्र निज-शुद्धात्म-संवित्ति बलेन इन्द्रियाद्यानवच्छिद्राणां इम्पने सति कर्मजलप्रवेशाभावे निर्विघ्नेन केवलज्ञानाद्यनन्त-गुण-रत्नपूर्ण मुक्तिवेलापत्तनं प्राप्नोति । एवं संवरगत-गुणानुचिन्तनं संवरानुप्रेक्षा ज्ञातव्य ।
-द्र. सं. टीका ३५/१११