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________________ AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAMKARAM भाव-विशुद्धि में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ (९) निर्जरानुप्रेक्षा : क्यों, क्या और कैसे ? संवरानुप्रेक्षा के बाद निर्जरानुप्रेक्षा क्यों, कैसे ? आज हम देखते हैं कि मनुष्य शारीरिक दृष्टि से ही नहीं, मानसिक और भावनात्मक दृष्टि से भी अस्वस्थ है। उसके मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह की तरंगें उछल रही हैं। मन तनाव, चिन्ता, व्यग्रता, भय, प्रतिशोधभावना आदि के कारण अशान्त है। उसके मन-वचन-काया में वक्रता है, प्रवंचना है, ठगी और धोखेबाजी है। उसके सभी व्यवहारों में विषमता झलक रही है। अन्तःकरण में प्रत्येक प्रवृत्ति के साथ राग या द्वेष, प्रियता या अप्रियता, मनोज्ञता या अमनोज्ञता की छाप लगी हुई है। विविध शुभाशुभ कर्मों के संचय के कारण आत्मा कर्ममल संचय से मलिन हो रही है। जिसके कारण वह सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप में सम्यक्रूप से प्रवृत्त हो नहीं पाती। होती है तो भी भय, प्रलोभन, स्वार्थ या लौकिक कामनाओं की पूर्ति के उद्देश्य से प्रवृत्त होती है। इस प्रकार के रुग्ण मन, वचन, शरीर और आत्मा की बाह्य और आभ्यन्तर चिकित्सा के लिए अध्यात्मचिकित्साविज्ञों ने कर्मों की निर्जरा के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। 'तपसा निर्जरा च' बाह्य-आभ्यन्तर निष्काम रूप तप से निर्जरा होती है। इस सिद्धान्त के द्वारा कर्मनिर्जरा करके आध्यात्मिक चिकित्सा का मार्ग प्रशस्त किया। - जिस प्रकार प्राकृतिक चिकित्सा में शरीर में संचित विजातीय द्रव्यों-मलों के कारण हुए रोग को मिट्टी, जल, सूर्य-किरण, भाप, उपवास, रेचन आदि प्रणाली द्वारा बाहर निकालकर रोगी को स्वस्थ किया जाता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक चिकित्सा में राग-द्वेषादि द्वारा जन्म-जन्मान्तर से संचित कर्ममलों तथा विजातीय तत्त्वोंपूर्वबद्ध कर्मों को बाह्य-आभ्यन्तर तप द्वारा बाहर निकालने की प्रणाली है। जिसके द्वारा अस्वस्थ आत्मा तन, मन और आत्मा से स्वस्थ और सशक्त हो जाती है। १. (क) 'शान्तसुधारस, चिन्तनिका नं. ९' से भावांश ग्रहण, पृ. ४३ . (ख) 'अमूर्त चिन्तन' से भावांश ग्रहण, पृ. ७५
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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