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________________ * २३४ कर्मविज्ञान : भाग ६ ऊँची टेकरी पर चढ़कर देखा तो गधा काफी दूर पर मजे से घास चर रहा था । अब तो कुम्हार के मन में तीव्र क्रोध उमड़ा, अहंकारवश गधे को वह शैतान, नीच, पाजी, दुष्ट कहता हुआ उसे पकड़ने दौड़ा। गधा भी समझ गया कि मालिक मुझे पकड़ेगा, पीटेगा और फिर खूँटे से बाँध देगा। इसलिए वह बेतहाशा दौड़ा। आखिर सामने से आने वाले मनुष्य ने उसे रोका। अब गधा पकड़ में आ गया तो कुम्हार ने उसे भरपेट गालियाँ देकर खूब बेरहमी से पीटा और घर ले जाकर उसे खूँटे से बाँध दिया।" इस घटना में कुम्हार के मन-वचन-काया की उत्कट चंचलता स्पष्ट है, साथ ही मिथ्यात्व और प्रमाद के वश उसे भान ही नहीं रहा कि वह क्या और क्यों ऐसा कर रहा है ? उसके जीवन में राग और द्वेष का क्षण ही हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य और परिग्रह का क्षण है, जोकि समस्त कर्मवर्गणाओं के आकर्षण का आनव का क्षण है।' = आव के ४२ भेद और अशुभानवों से विविध दुःख-प्राप्ति आनव के ४२ भेद शास्त्रकारों ने बतलाए हैं-पाँच अव्रत, पाँच इन्द्रियाँ, चार कषाय, तीन योग और पच्चीस क्रियाएँ । प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह, इन पाँच प्रकार के अव्रतों से जीव यहाँ और परलोक में अनेक प्रकार के वध, बन्धन, रोग, शोक, कष्ट, ताड़न, तर्जन आदि दुःख पाते हैं। एक-एक इन्द्रिय के विषयों में आसक्त हुआ प्राणी भी प्राणान्त कष्ट पाते देखे जाते हैं। स्पर्शेन्द्रिय के वश में होकर महान् शक्तिशाली दुर्दान्त हाथी अपनी स्वतंत्रता खोकर मनुष्य के अधीन हो जाता है और अंकुशादि की वेदना को सहता है । २ रसनेन्द्रिय के विषयों के वश में होकर मत्स्य काँटे में फँसकर अपने प्राण गँवा बैठता है । सुगन्ध में आसक्तं भौंरा सन्ध्या समय कमल में बंद हो जाता है, प्रातःकाल कोई हाथी आदि जानवर आकर उसे पैरों से रौंद डालता है। रूपलोलुप पतंगा दीपक के प्रकाश पर टूट पड़ता है और अपने प्राण खो देता है । शब्द-विषय में आसक्त मृग शिकारी का निशाना बनकर अकाल में मरण-शरण हो जाता है। इसी प्रकार क्रोधादि कषायों और हास्यादि नौ नोकषायों से दूषित प्राणी यहाँ भी १. (क) 'आम्रवभावना पर प्रेक्षाध्यान, मार्च १९८७ के मुनि सुखलाल जी के लेख से संक्षिप्त, पृ. १४ (ख) 'अमूर्त चिन्तन' से भावांश ग्रहण, पृ. ५६ २. (क) इन्द्रियाव्रतकषाययोगजाः, पंच-पंच-चतुरन्वितास्त्रयः । पंचविंशतिरसत्क्रिया इति, नेत्र - वेद - परिसंख्ययाऽप्यमी ॥ -शान्तसुधारस (आम्रवभावना), श्लो. (ख) जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भा. ४, बोल २१२, पृ. ३६७
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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