SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ आत्म-रमण में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ - २३३ ॐ ओर से गिरते हुए झरनों के पानी से तालाब शीघ्र ही भर जाता है, उसी प्रकार आत्मा (जीव) आम्रवरूपी नालों से आने वाले कर्मरूपी जल से भर जाता है और उन कर्मों के परिपूर्ण आत्मा व्याकुल, चंचल और मलिन (पंकिल) हो जाती है।'' ___ आचारांगसूत्र' में कहा गया है-“ऊपर स्रोत हैं, नीचे स्रोत हैं, मध्य में कर्मों के आस्रव के स्रोत कहे गए हैं। इन स्रोतों को अनुप्रेक्षा द्वारा देखो, इन स्रोतों द्वारा मनुष्य आसक्त होता है।"२ पूर्वोक्त त्रिविध योगों की चंचलता का प्रमुख कारण मोहनीयकर्म है, जो मिथ्यात्व, कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) और नोकषाय (हास्य, रतिअरति, शोक, भय, जुगुप्सा, कामत्रय) से अनुप्राणित होता है। अविरति और प्रमाद भी मोहकर्म के अंग हैं। इस प्रकार मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग ये पाँच आस्रव के मूलभूत कारण हैं। यही पंचविध आस्रव कर्मबन्ध का कारण बनता है। यद्यपि मिथ्यात्वादि चार कारणों से ही स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध होता है, केवल योग से स्थिति-अनुभागबन्ध नहीं होता, वह तो केवल दो-तीन समय मात्र का प्रकृति-प्रदेशबन्ध है, नाममात्र का बन्ध है। प्रथम मिथ्यात्वादि चार के कारण ही त्रिविध योगों की चंचलता बढ़ती है और मनुष्य के प्रवाह में बहकर बात की बात में तीव्र अशुभ कर्मबन्ध कर लेता है, जिसके उदय में आने पर उसे भयंकर दण्ड भोगना पड़ता है। त्रियोगों की तीव्र चंचलता के कारण कर्मबन्ध : एक उदाहरण एक सामान्य उदाहरण के द्वारा इसे समझें-“एक कुम्हार का गधा चरता-चरता बहुत दूर जंगल में निकल गया। कुम्हार को गधे की जरूरत पड़ी। वह उसे ढूँढ़ने निकला। बहुत देर तक ढूँढ़ता-ढूँढ़ता हैरान हो गया, तब गधे के प्रति मन ही मन रोष और द्वेष उमड़ा, वह उसे भद्दी-भद्दी गालियाँ बकने लगा। एक १. यथा सर्वतो निर्झरैसपतद्भिः, प्रपूर्वत सद्यः पयोभिस्तराकः। तथैवाश्रवैः कर्मभिः संभृतोऽङ्गी, भवेद् व्याकुलश्चंचलः पंकिलश्च॥ -शान्तसुधारस (आम्रवभावना), श्लो. १ २. उड्ढं सोता अहे सोता, तिरियं सोता वियाहिया। ऐतै सोता वियक्खाया, जेहिं संगति पासहा॥ -आचारांग १/५/६/५८७ ३. (क) मिथ्यात्वाविरति-प्रमाद-कषाय-योगा बन्ध हेतवः। . (ख) मिथ्यात्वाऽविरति-कषाय-योगसंज्ञाश्चत्वारः सुकृतिभिराश्रवाः प्रदिष्टाः। । कर्माणि प्रतिसमयं स्फुरैरमीभिर्बघ्नन्तो भ्रमवशतो भ्रमन्ति जीवाः॥ -शान्तसुधारस (आमवभावना), श्लो. ३ ४. कार्तिकयानुप्रेक्षा (आम्रवानुप्रेक्षा) की गाथा ८९ का विशेषार्थ, पृ. ४७
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy