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________________ ® आत्म-रमण में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ ® २३५ ॐ अपनी और दूसरों की शान्ति का नाश करता है; न वह सुख-शान्तिपूर्वक जीता है और न ही दूसरों को जीने देता है। अतः 'सर्वार्थसिद्धि' के अनुसार-कषायादि भी इस लोक में वध, बन्ध, अपयश और क्लेश आदि दुःखों को पैदा करते हैं और परलोक में भी नाना प्रकार के दुःखों से प्रज्वलित कर नाना गतियों में भ्रमण कराते हैं। इस प्रकार आस्रव के दोषों का चिन्तन करके (अप्रमत्त होकर) आम्रव का निरोध करने की भावना करना आस्रवानुप्रेक्षा है। आस्रवों से संचालित कितना परवश ? जो व्यक्ति आम्रवों से संचालित होते हैं, वे न अपने मन पर काबू पा सकते हैं, न ही अपनी वाणी पर नियंत्रण कर सकते हैं और न अपने आचरण पर काबू कर सकते हैं। वे तीव्रतम कषायों और राग-द्वेष-मोह के थपेड़ों से आहत होकर पापकर्मों को आकर्षित करते रहते हैं। आमवानुप्रेक्षा से जीव अव्रत आदि का कुपरिणाम समझ लेता है और इनका त्याग कर व्रतों को स्वीकार करता है। इन्द्रियों और कषायों पर विजय पाने का पुरुषार्थ करता है। योगों का निरोध करने का अभ्यास करता है। साम्परायिक क्रियाओं से निवृत्त होने का प्रयत्न . करता है। आम्रवानुप्रेक्षा के अनन्तचतुष्टयी का प्रकटीकरण अध्यात्म की भाषा में कहें तो आस्रव सांसारिक सुख या दुःख का हेतु है। कर्म के उदय से होने वाली अनुभूति या तो सुखरूप होती है या दुःखरूप। परन्तु आम्रव का निरोध होने पर सुख और दुःख दोनों के द्वार बंद हो जाते हैं। उस स्थिति में आत्मिक सुख की अनुभूति होती है। जो आत्म-गुणों की अनन्तचतुष्टयी आम्रव के कारण प्रगट नहीं हो रही थी, वह आम्रवानुप्रेक्षा के द्वारा प्रकट हो जाती है। जब तक आस्रवजनित वृत्तियाँ और कर्मप्रकृतियाँ रहती हैं, तब तक आत्मा के मौलिक स्वरूप का प्रत्यक्षीकरण नहीं होता। आस्रव के कारण ज्ञान-दर्शन आवृत, सुख विकृत और शक्ति सुषुप्त रहती है। आसवानुप्रेक्षा के द्वारा समता, एकाग्रता, १. जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भा. ४, बोल २१२, पृ. ३६७ ।। २. आम्रवा इहामुत्राऽपाययुक्ता महानदीस्रोतोवेगतीक्ष्णा इन्द्रियकषायाव्रतादयः। तत्रेन्द्रियाणि - स्पर्शादीनि वनगज-वायस-पन्नग-पतंग-हरिणादीन् व्यसनार्णवमवगाहयन्ति। तथा .. कषायादयोऽपीह वध-बन्धापयशः परिक्लेशादीन् जनयन्ति। अमुत्र च नानागतिषु बहुविध दुःख-प्रज्वलितासु परिभ्रमयन्तीत्येवमानवदोषानुचिन्तनमासवानुप्रेक्षा। -सर्वार्थसिद्धि ९/७/४१६ ३. (क) 'प्रेक्षाध्यान, मार्च १९८७' में प्रकाशित आसवानुप्रेक्षा लेख से, पृ. १५ र (ख) जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भा. ४, बोल २१२, पृ. ३६७-३६८
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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