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® आत्म-रमण में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ ® २२७ 8 अन्यत्वानुप्रेक्षक के आध्यात्मिक व्यक्तित्व में
भौतिक व्यक्तित्व से अन्तर अतः अन्यत्वानुप्रेक्षक साधक आवश्यकतानुसार पदार्थों का उपभोग करता है, खाएगा, पीएगा, मकान में रहेगा, वस्त्र पहनेगा, परन्तु वह उपभोग्य वस्तुओं के साथ मैं और मेरेपन (ममत्व-अहंत्व) को नहीं जोड़ेगा। जबकि भौतिक चेतना वाला व्यक्ति भोजन, वस्त्र, मकान आदि पर आसक्ति व ममता करता हुआ उपभोग करेगा। यही आध्यात्मिक और भौतिक व्यक्तित्व में अन्तर है। इस प्रकार अन्यत्वानुप्रेक्षा के द्वारा सहज ही अशुभ योग-संवर हो जाता है।
शरीर को अन्य समझने पर निर्जरा लाभ इसी प्रकार अन्यत्वानुप्रेक्षा से जब मैं अन्य हूँ, शरीर अन्य है, इस प्रकार मैं रोगी हूँ या मेरा रोग इत्यादि प्रकार की अभिन्नता से दूर हो जाता है, तब मैं रोगी नहीं, मेरा रोग नहीं; इस प्रकार केवल ज्ञाता-द्रष्टा हूँ, रोग से अलग हूँ, दूर हूँ, ऐसी स्थिति में रोगादि दुःख आ पड़ने पर भी समभाव से संहने से साधक कर्म-निर्जरा कर लेता है। (६) अशुचित्वानुप्रेक्षा : एक चिन्तन
अशुचित्वानुप्रेक्षा का प्रयोजन जिस शरीर से धर्म-पालन करके कर्मों से मुक्ति प्राप्त करनी थी, उस पर आसक्ति करके उसके अशुचित्व की उपेक्षा करके सौन्दर्य की कल्पना करके अहंकार करना कर्मों का आस्रव और बन्ध करना है। अतः “संवेग और वैराग्य के लिये जगत् और शरीर के स्वभाव का चिन्तन करने से अर्थात् शरीर के अशुचि-स्वभाव का चिन्तन-मनन करने से शरीर के प्रति निर्वेद (वैराग्य) होता है, जिससे साधक निर्विण्ण होने पर जन्मोदधि को तरने के लिये चित्त को उस ओर लगाता है।" यही अशुचित्वानुप्रेक्षा का प्रयोजन है।२
.. अशुचिमय यह शरीर प्रीति योग्य कैसे हो सकता है ? अशुचित्वानुप्रेक्षा से शरीर के प्रति मोह घटाने हेतु ‘ज्ञानार्णव' में कहा गया है-"अरे मूढ़ ! यह मानव-शरीर चर्मपटल से आच्छादित हड्डियों का पिंजर है।
-तत्त्वार्थसूत्र ७/७
१. 'अमूर्त चिन्तन' से भावांश ग्रहण, पृ. ४६-४७ २: (क) जगत्काय-स्वभावौ च संवेग-वैराग्याम्। (ख) एवं ह्यस्य संस्मरतः शरीरनिर्वेदो भवति।
निर्विण्णश्च जन्मोदधितरणाय चित्तं समाधत्ते।
-सर्वार्थसिद्धि ९/७/४.१६