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________________ ® २२८. ॐ कर्मविज्ञान : भाग६ ® सड़ी हुई लाश की-सी दुर्गन्ध से भरा हुआ है। यह मृत्यु के मुख में ही बैठा हुआ है और रोगरूपी सों का घर है। ऐसा शरीर मनुष्यों के लिये प्रीति (आसक्ति) योग्य कैसे हो सकता है ?"१ मृगापुत्र ने शरीर के अशुचित्व का निरूपण करते हुए कहा था-“यह शरीर अनित्य (नाशवान्) है, अशुचि (अपवित्र) है और अपवित्र वस्तुओं से उत्पन्न हुआ है। इस अशाश्वत शरीर में आवास दुःखों और क्लेशों का भाजन है। क्योंकि यह शरीर पानी के बुलबुले के समान क्षणभंगुर है, इसे पहले या पीछे कभी न कभी छोड़ना ही पड़ेगा। इसलिए इस अशाश्वत और अशुचि शरीर में मैं आनन्द नहीं पा रहा हूँ।"२ शरीर की अशुचिमयता ___ यह शरीर अशुचि इसलिए है कि यह शरीर रज और वीर्य जैसे घृणित पदार्थों से बना है। माता के गर्भ में अशुचि-पदार्थों के आहार द्वारा इसकी वृद्धि हुई है। 'बारस अणुवेक्खा' के अनुसार-यह देह दुर्गन्धमय है, वीभत्स (घिनौनी) है, डरावनी है, मलमूत्र से भरी है, जड़ है, मूर्तिक है, क्षीण एवं विनश्वर स्वभाव वाला है, इस प्रकार सतत चिन्तन करना ही अशुचित्वानुप्रेक्षा है। 'द्रव्यसंग्रह टीका' के अनुसार-यह शरीर बाहर और अंदर से अशुचि है, स्वरूप से भी अशुचि है। अशुचिमय मतों की उत्पत्ति का स्थान = उत्पादक होने से द्रव्य से अशुचि है और काम-क्रोधादि में लीन होने से भाव से भी अशुचि है। उत्तम स्वादिष्ट और सरस पदार्थों का आहार भी इस शरीर में जाकर खराब और बेस्वाद होकर अशुचिरूप में परिणत हो जाता है। जैसे-नमक की खान में जो पदार्थ गिरता है, वह नमक बन जाता है, इसी तरह शरीर के संसर्ग में जो भी पदार्थ आते हैं, वे सब अशुचि हो जाते हैं। आँख, नाक, कान आदि नौ द्वारों से सदैव शरीर से मल झरता रहता है। साबन से धोने पर भी कोयला जैसे अपना रंग नहीं छोड़ता, कपूर आदि सुगन्धित पदार्थों से वासित भी लहसुन अपनी दुर्गन्ध नहीं छोड़ता, इसी तरह शरीर को पवित्र बनाने के लिए स्नान, अनुलेपन, धूप, सुगन्धित पदार्थ आदि कितने ही साधनों का प्रयोग क्यों न किया जाए, इसके अशुचि स्वभाव को दूर करना शक्य नहीं है। ऐसे अशुचिमय देह पर गग. अहंकार, दर्प, आसक्ति क्यों की जाए? इस शरीर पर किया हुआ शृंगार, साज-मन्जा आदि म्व-पर मोह जगाकर आत्मा का १. अजित-पटल-गूढं, पंजरं कीकसानाम् । कुथित-कुणप-गन्धैः पूरितं मूढ ! गाढम्॥ यम-वदन-निषण्णं. रोग-भोगीन्द्र-गेहम्। कथमिह मनुजानां प्रीतये स्याच्छरीरम्। २. देखें-उत्तराध्ययन का १९वाँ मृगापुत्रीय अध्ययन. गा. २-१३ -ज्ञानार्णव
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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