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® २२४. ॐ कर्मविज्ञान : भाग६.
विपरीत जो शरीर और आत्मा को अभिन्न मानता है, वह शरीर के प्रति मोह रखकर उसके पालन-पोषण के लिए नाना पापकर्म करता है। वह अपने स्वार्थ, तृष्णा और अहंकार-ममकार में डूबा रहता है। वह शरीर को वचन से नौका भले ही मानता हो, किन्तु उस नौका में आम्रवों के छिद्र हो जाने पर भी वह गाफिल रहता है
और जलधि पार हो जाने के उपाय जानता हुआ भी नौका के तट के निकट लग जाने पर भी उससे मोहवश चिपटा रहता है, छोड़ता नहीं।' शरीर और आत्मा को भिन्न और अभिन्न मानने की दृष्टि
शरीर और आत्मा के भिन्न मानने वाला साधक शरीररूपी नौका को केवल साधन मानता है, प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर उसे छोड़ देता है। इस प्रकार अन्यत्वानुप्रेक्षक साधक भेदविज्ञान को जीवन में आचरित कर लेता है, तब शरीर और शरीरसम्बद्ध वस्तुओं के प्रति रोग, दुःख, विपत्ति, परीषह, उपसर्ग आदि के समय अनित्यानुप्रेक्षा के द्वारा यह चिन्तन करता है-"वह दुःख, कष्ट या पीड़ा किसको हो रही है?" शरीर को या आत्मा को? आत्मा को कोई दुःख, कष्ट या पीड़ा नहीं होती। अगर व्यक्ति इस प्रकार का चिन्तन करे, जहाँ दर्द है, उसी पर अपना शुभ ध्यान केन्द्रित करे तो अभ्यास करते-करते उस दर्द या कष्ट का भान ही नष्ट हो जाता है। यह सत्य है कि जब मनुष्य दर्द या कष्ट को शरीर के साथ अभिन्नता की मान्यता के आधार पर जोड़ देता है कि यह दर्द मुझे हो रहा है, तभी दर्द या कष्ट अधिकाधिक बढ़ता जाता है। परन्तु जब भेदविज्ञान या अन्यत्व का ज्ञान स्पष्ट हो जाता है, वह द्रष्टा की भाँति केवल देखता है कि शरीर में कुछ हो रहा है, साथ ही वह यह भी भेदविज्ञान कर लेता है-यह रहा कष्ट और यह रहा मैं। वह सिर्फ द्रष्टा रहता, संवेदक नहीं बनता। श्वे. खरतरगच्छीय साध्वी प्रमुखा श्री विचक्षणाश्री कैंसर रोग की भयंकर पीड़ा से ग्रस्त थी, परन्तु उनके चेहरे पर आनन्द की ऊर्मियाँ लहराती रही थीं। वे यह भेदविज्ञान की दृष्टि से उत्तर देतीपीड़ा शरीर को है, मुझे नहीं। मैं तो परम आनन्द में हूँ कि यह पीड़ा न आती तो मैं अपने पूर्वबद्ध अशुभ कर्मों को समभाव से भोगकर कैसे काट पाती? मेरे लिये कर्मक्षय (निर्जरा) का यह शुभ अवसर है।"३
१. (क) 'अमूर्त चिन्तन' से भाव ग्रहण, पृ. ४९ ।।
(ख) सरीरमाहु नावत्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ।
- संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति महेमिणो॥ २. 'अमूर्त चिन्तन' से भावांश ग्रहण, पृ. ४५ ३. तीर्थकर (मासिक) विचक्षणश्री-विशेषांक से संक्षिप्त
-उत्तराध्ययन २३/७३