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* आत्म-रमण में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ ॐ २२३ 8
समाधानयुक्त करने वाले के शरीरादि के प्रति स्पृहा उत्पन्न नहीं होती और इससे तत्त्वज्ञान की भावनापूर्वक वैराग्य की वृद्धि होने पर आत्यन्तिक मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है।
आत्मा को शरीरादि से भिन्न मानने पर भी
शरीरादि के प्रति उपेक्षा नहीं "मैं शरीर आदि पर-पदार्थ नहीं हूँ, ये शरीरादि भी मेरे नहीं हैं, इस प्रकार अहंत्व-ममत्व की ग्रन्थि जब खुल जाती है, तब अनादिकालीन भ्रम, मोह टूट जाता है। इस स्पष्ट बोध के साथ-साथ सारी विचारधाराओं में परिवर्तन आ जाता है। फिर शरीरादि के प्रति आसक्ति, स्पृहा एवं ममता तथा शरीर के लिए किये जाने वाले हिंसादि पापासव भी छूट जाते हैं।'
प्रश्न होता है-क्या शरीरादि मेरे नहीं हैं, इस प्रकार मानने वाला शरीर के प्रति उपेक्षक या उदासीन अथवा विरक्त नहीं हो जाएगा? फिर वह अपने परिवार, समाज, धर्मसंघ और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों और दायित्वों को कैसे निभा पाएगा?
नौका और नाविक है-शरीर और आत्मा : एक चिन्तन इसका समाधान भगवान महावीर की दृष्टि में यह है कि शरीर नौका है, आत्मा (जीव) नाविक है। 'उपनिषद्' में भी इसी तथ्य को समझाया गया है-शरीर रथ है, आत्मा रथिक है। शरीर अश्व है, आत्मा अश्वारोही है। नाविक नौका की, अश्वारोही अश्व की अथवा रथिक रथ की उपेक्षा कैसे कर सकता है ? नाविक के लिये अथाह जलधि को पार करने का एकमात्र साधन नौका है जो है ! शरीर और आत्मा को एक अभिन्न मानने वाले के द्वारा शरीर का संरक्षण-सँभाल रखने की अपेक्षा जो शरीर और आत्मा को भिन्न मानता है, उसके द्वारा शरीर के संरक्षण और सँभाल करने के उद्देश्य, दृष्टि और धारणा में बहुत अन्तर है। जैसे-नाविक नौका को सुरक्षित रखता है, उसमें छिद्र होकर पानी न घुस जाए, इसकी चौकसी रखता है, किन्तु किनारे पहुँच जाने पर नौका को त्याग देता है, उससे मोहवश चिपटता नहीं, इसी प्रकार शरीर को नौका मानकर चलने वाला साधक आत्मा में शरीर और शरीर सम्बन्धित वस्तुओं को लेकर राग-द्वेष, कषायादि कर्माम्रवों का प्रवेश न हो जाए, इसकी बराबर चौकसी रखता है, शरीर को रत्नत्रयरूप धर्म-पालन का साधन मानता है, ज्यों ही शरीर पापकर्मों की ओर प्रवृत्त होने लगता है, त्यों ही वह उसे रोकता है, आत्मा की ओर उसकी बागडोर मोड़ देता है। इसके