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________________ ® २२२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ ® इसलिए शरीर को और शरीर से ममत्ववश या कर्मोपाधिवश संयोग सम्बन्ध से सम्बन्धित सभी निर्जीव-सजीव पर-पदार्थों को अपना समझना भ्रान्ति है। अतः देंह, बन्धुजन, सुवर्ण आदि पदार्थ और इन्द्रिय-सुख आदि कर्माधीन होने से विनश्वर है: निश्चयनय से निज शुद्ध आत्मा = परमात्मपद से अन्य है। शरीरादि का अभिमान समझने से हानि मनुष्य का अपने शरीर के प्रति गाढ़ ममत्व होता है। उसका अधिकांश उसकी सुरक्षा करने, उसे पुष्ट करने, उसे सजाने-सँवारने में, उसे खिलाने-पिलाने आदि में लग जाता है। उसकी मूर्छा इतनी सघन है कि वह शरीर और आत्मा को एक समझकर मैं और मेरा मान बैठता है। शरीर से भिन्न तथा शरीर सम्बद्ध सजीव-निर्जीव पर-पदार्थों से भिन्न उसका अस्तित्व है, यह सोच ही नहीं पाता। जबकि 'बारस अणुवेक्खा' में कहा गया है-शरीरादि जो बाह्य द्रव्य हैं, वे सब आत्मा से पृथक् हैं। मेरी आत्मा ज्ञान-दर्शन-स्वरूप है, इस प्रकार अन्यत्वानुप्रेक्षा का चिन्तन करना चाहिए। शरीरादि को आत्म-बाह्य कैसे समझें? . इसी तथ्य को उजागर करते हुए ‘सर्वार्थसिद्धि' में कहा गया है-“संसार में परिभ्रमण करते हुए मेरे लाखों शरीर अतीत में हो गए हैं, उनसे भिन्न, वही मैं हूँ। इस प्रकार जब मैं शरीर से भी अन्य हूँ, तब मैं बाह्य पदार्थों से भी भिन्न होऊँ, इसमें क्या आश्चर्य है ? इसलिए बन्ध की अपेक्षा शरीर के साथ एकत्व होने पर भी दोनों के लक्षण में अन्तर होने से मैं (आत्मा) अन्य हूँ।" फिर 'राजवार्तिक' के अनुसार-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चारों की अपेक्षा से भी शरीर और आत्मा का अन्यत्व चार प्रकार से सिद्ध होता है। इसलिए शरीर से भिन्न जो है, वह मैं (आत्मा) हूँ। यह अन्यत्वानुप्रेक्षा का प्रधान सूत्र है।३. इस प्रकार मन को १. (क) 'जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भा. ४' से भावांश ग्रहण, पृ. ३६४ (ख) शरीरतः कर्तुमनन्तशक्तिं विभिन्नमात्मानमपास्तदोषम्। जिनेन्द्र ! कोषादिव खड्गयष्टिं, तव प्रसादेन ममाऽस्तु शक्तिः॥ यस्यास्ति नैक्यं वपुषाऽपि सार्धं, तस्याऽस्ति किं पुत्र-कलत्र-मित्रैः। पृथक्कृते चर्माणि रोमकूपाः कुतो हि तिष्ठन्ति शरीरमध्ये॥ -परमात्म-द्वात्रिंशिका (ग) बृहद्र्व्यसंग्रह टीका ३५/१०८ २. (क) 'जीवन की पोथी' से भाव ग्रहण, पृ. १५३ (ख) अण्णं इमं सरीरादिगं पि जं होइ बाहिरं दव्वं । णाणं दसणमादा एवं चिंतेहि अण्णत्तं। बारस अणुवेक्खा १३ ३. (क) सर्वार्थसिद्धि ९/७/४१५ (ख) राजवार्तिक ९/७/५/६०१/२९ से भाव ग्रहण
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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