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आत्म- रमण में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ
(५) अन्यत्वानुप्रेक्षा : स्वरूप, उपाय और परिणाम
मैं कौन हूँ? क्या यह शरीर, इन्द्रियाँ, मन, अंगोपांग, माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री आदि मेरे हैं ? इसी प्रकार क्या हाथी, घोड़े, महल, मकान, उद्यान तथा अन्य सुखभोग की सामग्री मेरी है ? कर्मविज्ञान के महामनीषियों ने एक स्वर से प्रतिपादन किया कि अपनी ज्ञान-दर्शन-सुख - शक्तिमयी आत्मा के अतिरिक्त समस्त बाह्य (पर) पदार्थ हैं। ये सभी अपनी आत्मा से भिन्न हैं । इसी दृष्टि से उन्होंने कहा–“आत्माऽन्यः पुद्गलश्चान्यः। " - आत्मा अन्य है, शरीरादि पुद्गल अन्य है, पर-पदार्थ हैं, मैं इनसे भिन्न हूँ, क्योंकि इनके स्वरूप पर विचार करने से स्पष्टतः भिन्न प्रतीत होते हैं । '
शरीर और आत्मा दोनों भिन्न-भिन्न हैं
सर्वप्रथम शरीर और आत्मा को ही ले लीजिए। शरीर और आत्मा बिलकुल भिन्न हैं। शरीर विनश्वर है, आत्मा शाश्वत है। शरीर पौद्गलिक है, अचेतन, ज्ञानरहित है; जबकि आत्मा ज्ञानमय है, चेतन है। शरीर इन्द्रियों से दृष्टिगोचर होता है, आत्मा इन्द्रियग्राह्य नहीं, इन्द्रियातीत है । शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूँ। शरीर सादि (आदि - अन्त वाला) है, आत्मा अनादि - अनन्त है। आत्मा के साथ शरीर का संयोग सम्बन्ध कर्मों के कारण हुआ है। 'परमात्म- द्वात्रिंशिका' के रचयिता आचार्य अमितगति ने कहा है- " जिसका अपने शरीर के साथ भी एकत्व नहीं है, भला उस आत्मा का अपने पुत्र, स्त्री, मित्र आदि के साथ एकत्व सम्बन्ध हो ही कैसे सकता है ? यदि शरीर पर से चमड़ी उधेड़कर अलग कर दी जाए तो उसमें रोमकूप ठहर ही कैसे सकते हैं? बिना आधार के आधेय कैसे टिक सकता है ?"
१. (क) जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भा. ४' में बारह भावना से भावांश ग्रहण, पृ. २६४ (ख) अण्णं देहं गिण्हदि जणणी अण्णा य होदि कम्मा दो।
अण्णं होति कलत्तं, अण्णो वि य जायदे पुत्तो ॥
.-कार्तिकेयानुप्रेक्षा ८०
(ग) सर्वार्थसिद्धि ९/७/४१५