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________________ ॐ. २२० * कर्मविज्ञान : भाग ६ । एकत्वानुप्रेक्षा का ठोस परिणाम ऐसी एकत्वानुप्रेक्षा से उसमें भीड़ के साथ रहते हुए भी निर्भयता, वीरता और स्पष्ट दृष्टिपूर्वक एकाकी चलने की सुदृढ़ता होगी। वह व्यक्तिगत और समूहगत दोनों ही स्थितियों में आत्म-निर्भर, आत्मबली, स्व-सन्तुष्ट एवं समत्वयोगयुक्त होगा। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की यह उक्ति-"जोदि तोर डाक सुने, केउ ना आसे, तोवे तुमि एकला चलो रे।" उसके जीवन में चरितार्थ हो जाएगी। अतः बाहर से अनेक के बीच में रहता हुआ भी व्यक्ति को अन्तर से अकेले रहने का अभ्यास करना चाहिए। किसी भी व्यक्ति या वस्तु के साथ आसक्तिपूर्वक बँधना नहीं चाहिए। अन्तर से स्वयं पृथक् है, ऐसा मानकर प्रतिदिन एकत्वानुप्रेक्षा करके अपने आप से एकान्त में मिलना चाहिए। अनेक में रहते हुए एकत्व का चिन्तन सुदृढ़ करने पर मन की प्रसन्नता टिक सकती है। मैं अकेला हूँ (एगोऽहं) यह विचार भी, संसार में . मेरा कोई नहीं है, ऐसी दीनतापूर्वक नहीं, अपितुं वीरतापूर्वक करना है। अर्थात् अकेलेपन का विचार दुःख के संवेदन के साथ नहीं करना है, किन्तु ऐसा विचार करते हुए अन्तर में आनन्द का स्रोत उभरना चाहिए। ऐसा करने से शुद्ध आत्मा में रमण करने का अभ्यास सुदृढ़ होगा।
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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