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* कर्ममुक्ति में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ , २१७ 8
इसीलिए 'उपनिषद्' में कहा गया है-“तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनु पश्यतः ?"-जो एकत्व की दृष्टि से देखता है, उसे क्या मोह और क्या शोक होगा? आसक्ति द्वैत में पैदा होती है, अद्वैत में आसक्ति का विलय हो जाता है। __ व्यवहार के धरातल पर सोचने वाले लोगों का कहना है-अकेलेपन की बात सर्वथा अव्यावहारिक और असामाजिक है। स्थूलदृष्टि से ऐसा सोचना कथंचित् ठीक है। परन्तु जिसको एकत्व की अनुभूति हृदयंगम नहीं होती, वह युवावस्था में परिवार के पालन-पोषण में संलग्न रहता है। परिवार से उसे प्यार, स्नेह, सहानुभूति और सहयोग मिलता है, सम्मान भी मिलता है। तब वह अनुभव ही नहीं करता कि मैं अकेला हूँ। किन्तु जब.बुढ़ापा आता है, किसी दुःसाध्य व्याधि से वह घिर जाता है, तब उसे प्राप्त होने वाले सहयोग, आकर्षण, सम्मान और स्नेह के धागे टूट जाते हैं, तब उसे भान होता है कि मेरा कोई सहायक नहीं, मेरी उपेक्षा हो रही है, मैं निपट अकेला पड़ गया हूँ। यदि वह पहले ही परिवारादि से कर्त्तव्य-सम्बन्ध रखता हुआ अन्तर से स्वयं को अकेला समझता तो उसे किसी भी दुरवस्था में दुःख न होता, मोह के कारण कर्मबन्ध न होता।' इसे स्पष्टतः समझाने के लिए मनीषी कहते हैं-तू अकेला है। यह शरीर भी तेरा नहीं है, फिर ये स्वजन तेरे कैसे होंगे? 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' में स्पष्ट कहा है-“जीव अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही गर्भ में देह धारण करता है, वही बालक, युवक और वृद्ध होता है। एक ही जीव स्वकर्मों के कारण विभिन्न अवस्थाओं को धारण करता है। अकेला ही जीव रोगग्रस्त और शोकग्रस्त होता है। वही जीव स्वयं मानसिक दुःखों से संतप्त होता है, जीव अकेला ही मरता है और अकेला ही स्वकृत पापकर्मों के कारण नरक-तिर्यंच आदि के दुःखों को दीन बनकर सहता है। जीव अकेला ही पुण्य का संचय करता है, वही जीव अकेला ही सर्वकर्म क्षय करके मोक्ष प्राप्त करता है। इस जीव को अपने द्वारा किये हुए कर्मों का दुःखद फल भोगना पड़ता है। कुटुम्बी जन या अन्य जन उसके दुःख को देखकर लेशमात्र भी ग्रहण नहीं कर सकते।"३ फिर यह सोचना कितना भ्रान्तिपूर्ण है कि मेरे बिना मेरे सम्बन्धियों का जीवन कैसे चलेगा? १. 'अमूर्त चिन्तन' से भावांश ग्रहण २. राजस्थानी दोहे से तुलना करें_ आप अकेलो अवतरे, मरें अकेलो होय।
यों कबहूं इण जीवरा, साथी सगा न कोय॥ ३. इक्को जीवो जायदि, इक्को गब्मम्मि गिण्हदे देहं।
इक्को बालजुवाणो, बुड्ढो जरागहिओ।७४॥ इक्को रोइ सोइ इक्को, तप्पेइ माणसे दुक्खे। । इक्को मरदि वराओ, णरयदुहं सहदि इक्को वि॥७५॥