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________________ * २१८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ * दो का संयोग दुःखकारक, एकाकी में कोई दुःख नहीं ___ 'उपनिषदों' में एक सूक्त है-“द्वितीयाद् वै भयं भवति।"-जब दूसरा होता है तो भय उत्पन्न होता है। कार्य में बाधा आती है, स्वतंत्रता खण्डित हो जाती है, स्वार्थों की टकराहट, अहंत्व का संघर्ष होता है। इसीलिए नमिराजर्षि ने एकत्व की अनुप्रेक्षा की। उनको यह तथ्य हृदयंगम हो गया कि 'संयोग ही दुःख है। क्योंकि संयोग आत्मा के स्वभाव नहीं, विभाव हैं। शरीर, वस्त्र, मकान, परिवार, रोग, शोक, क्रोधादि कषाय आदि सब संयोग हैं। दो में शब्द का. संयोग होता है, अकेले (एक) में नहीं। नमिराजर्षि की रानियाँ उनके शरीर में उत्पन्न दाहज्वर के निवारणार्थ चंदन घिस रही थीं। चूड़ियों के शब्द कानों में चुभ रहे. थे। नमिराजर्षि को यह शोर असह्य हो रहा था। इसलिए रानियाँ. अपने हाथ में एक-एक चूड़ी रखकर चन्दन घिसने लगीं। अब शब्द बंद हो गया। नमिराजर्षि ने पूछा-“क्या चंदन घिसना बंद हो गया?" उत्तर मिला-“नहीं, घिसा जा रहा है।" "तब शब्द क्यों नहीं हो रहा है?" इस पर रानियों ने कहा-"अब हमारे हाथ में एक-एक चूड़ी है। एक चूड़ी कभी शब्द नहीं करती।" यह सुनते ही तत्काल वे प्रतिबुद्ध हो गए और अकेले ही साधना पथ पर चल पड़े। अतः जब जन्म, मरण, संसार-परिभ्रमण, सुख-दुःख-भोग अकेले का होता है, तब आत्म-हित भी तो अकेले ही साधना है, इसमें भी दूसरों की ओर नहीं ताकना चाहिए। क्या अकेला रहना व्यवहार्य होगा? प्रश्न होता है, साधना करने वाला या सामाजिक व्यक्ति अकेला रहता है, यह चिन्तन व्यवहार में कैसे उपयोगी हो सकता है? यदि सभी अकेले-अकेले रहने की सोच लें तो न तो परिवार चलेगा, न कोई समाज और न ही राष्ट्र। संगठन होने पर ही शक्ति पैदा होती है। अकेला चना भाड़ को नहीं फोड़ सकता। अनेक तन्तु मिलते हैं, तब वस्त्र बनता है। परिवार, समाज, धर्मसंघ या राष्ट्र की सारी शक्ति सामूहिक संगठन पर निर्भर है। ऐसी स्थिति में क्या अकेला रहना व्यवहार्य होगा? पिछले पृष्ठ का शेष इक्को संचदि पुण्णं, इक्को भुंजेदि विविहसुरसोखं । इक्को खवेदि कम्मं, इक्को विय पावए मोक्खं ॥७६॥ सुयणो पिच्छंतो विहु, ण दुक्खलेसंपि सक्कदे गहिदुं। एवं जाणंतो विहु, तो वि मयत्तं ण छंडेइ॥७॥ -कार्तिकेयानुप्रेक्षा, एकत्वानुप्रेक्षा ७४-७७ १. उत्तराध्ययनसूत्र, अ. १२ का प्राथमिक (आ. प्र. समिति, ब्यावर) से भाव ग्रहण
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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