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* २१६ * कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ
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‘बृहद्रव्यसंग्रह टीका' के अनुसार-निश्चयदृष्टि से केवलज्ञान ही (आत्मा का एकमात्र) सहज या स्वाभाविक शरीर है, औदारिकादि शरीर नहीं। निजात्मतत्त्व ही अकेला सदा शाश्वत एवं परम हितकारी है, पुत्रकलत्रादि नहीं! अपना शुद्ध आत्म-पदार्थ ही एकमात्र अविनश्वर व परम हितकर धन है, स्वर्णादिरूप धन नहीं। स्व-आत्मसुख ही यथार्थ में अकेला सुख है, आकुलता-व्याकुलता-उत्पादक इन्द्रिय-सुख नहीं। स्व-शुद्धात्मा ही (कर्ममुक्ति आदि की साधना में) मोक्ष-प्राप्ति में सहायक है। इस प्रकार एकत्वभावना का फल जानकर निरन्तर शुद्ध आत्मा में एकत्वानुप्रेक्षा करनी चाहिए।' 'आचारांगसूत्र' में भी इसी तथ्य का निर्देश करते हुए कहा गया है-“मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है, मैं भी किसी का नहीं हूँ। इस प्रकार प्राणी अपने आप में अकेलेपन का अनुभव करे।"२ "शान्तसुधारस' में कहा गया है-ज्ञान-दर्शन की तरंगों से तरंगित यह भगवान आत्मा अकेला है। शेष सब पदार्थ उपकल्पित हैं, अर्थात् उपाधिरूप में सम्बन्ध स्थापित किये हुए हैं। उनके प्रति होने वाला ममत्वभाव ही व्याकुलता पैदा करता है। जिस प्रकार मद्य से उन्मत्त मानव अपने स्वभाव को भूल जाता है और नाना प्रकार की चेष्टाएँ करता है, उसी प्रकार पर-पदार्थों के संयोग से मनुष्य इस संसार में गिरता है, लोटता है और जंभाई लेता है, यह तू देख। इस संसार में कौन-सी वस्तु अपनी है, इस वास्तविक सत्य का तू चिन्तन कर। जिस व्यक्ति के अन्तःकरण में ऐसी बुद्धि उत्पन्न हो जाती है, क्या उसके हृदय में पाप उत्पन्न हो सकता है ?३
१. निश्चयेन कैवलज्ञानमेवैकं सहजशरीरम्। न च सप्रधातुमयौदारिकशरीरम्।
निजात्मतत्त्वमेवैकं सदा शाश्वतं परमहितकारी, न च पुत्रकलत्रादि। स्वशुद्धात्म-पदार्थ एकएवाविनश्वर-हितकारो परमोऽर्थः, न च सुवर्णाद्यर्थाः। स्वभावात्मसुखमेवैकं सुखं, न च कुलत्वोत्पादेन्द्रिय-सुखम्। स्व-शुद्धात्मैक-सहायो भवति। एवं एकत्वभावना-फलं ज्ञात्वा निरन्तरं निज-शुद्धात्मैकत्वभावनाकर्तव्या। इत्येकत्वानुप्रेक्षा।
.. -बृहद्रव्यसंग्रह टीका ४३/१०७ २. एगो अहमसि, न मे अस्थि कोइ, नयाऽहमवि कस्सह। एवं से एगागिणमेव अप्पाणं समभिजाणिज्जा।
-आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. ८, उ. ६, सू. ७५६ ३. एक एव भगवानयमात्मा, ज्ञान-दर्शनतरंगसंगः।
सर्वमन्यदुपकल्पितमेतद्, व्याकुलीकरणमेव ममत्त्वम्॥१॥ स्व-स्वभावं मद्यमदितो, भुवि विलुप्य विचेष्टते। दृश्यतां परभाव-घटनात् पतति लुण्ठति विजृम्भते॥४॥ विनयः चिन्तय वस्तुतत्त्वं, जगति निजम्हि कस्य किम् ? भवति मतिरिति यस्य हृदये, दुरितमुदयति तस्य किम् ?
-शान्तसुधारस, एकत्वभावना १, ४, टी. ४/१