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8 कर्ममुक्ति में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ * २१५ *
(४) एकत्वानुप्रेक्षा : स्वरूप, उपाय और परिणाम __यह एकांगी सत्य है कि सामाजिक या सामूहिक जीवन जीने वाले व्यक्ति को अकेले रहने में आनन्द और रसानुभव नहीं होता। यह भी उतना ही सच है कि अनेक होने में प्रायः संघर्ष, टकराहट, वैर-विरोध, मनोमालिन्य, मतभेद या भय की वृत्ति होती है। किन्तु व्यक्ति इस तथ्य को न समझकर मोह और राग के पूर्व-संस्कारवश सर्वप्रथम शरीर से तथा अन्यान्य पर-पदार्थों से सम्बन्ध स्थापित करता है, फिर क्रमशः परिवार, समाज, राष्ट्र आदि के लोगों से सम्बन्ध जोड़ता है। ऐसे सम्बन्ध जोड़ने का अर्थ है-अहंकार और ममकार की सृष्टि की वृद्धि। फलतः राग-द्वेष, घृणा-आसक्ति आदि के कारण कर्मबन्ध होते रहते हैं, जिनके कटुफल भोगने पड़ते हैं।
सहायक के परित्याग से एकत्वानुभूति का परिणाम भगवान महावीर ने एकत्व की अनुभूति के लिए सहाय-प्रत्याख्यान और उसके सुखद परिणाम बताते हुए कहा है-“सहाय-प्रत्याख्यान से जीव एकीभाव को प्राप्त होता है। एकीभावभूत जीव एकत्वभावना से भावित जीव के कलह, कषाय, झंझट एवं तू-तू मैं-मैं बहुत ही अल्प हो जाते हैं। उसके जीवन में संवर और संयम की वृद्धि हो जाती है, वह साधक आत्म-समाधि को प्राप्त कर लेता है।''२
निश्चयदृष्टि से : एकत्वानुप्रेक्षा का चिन्तन कैसे करें ? ___ इसीलिए आत्म-हितैषी मनीषियों ने कहा-“मेरी आत्मा अकेली है, शाश्वत है, पवित्र (शुद्ध) है, ज्ञानस्वरूप है, इसके सिवाय सभी बाह्य पदार्थ उपाधिमात्र, कर्मोपाधिक हैं, वे आत्मा के अपने नहीं हैं।" 'बारस अणुवेक्खा' में कहा गया हैमैं अकेला हूँ, ममत्वरहित हूँ, शुद्ध हूँ और ज्ञान-दर्शन-स्वरूप हूँ। अतः शुद्ध एकत्व ही उपादेय है, इस प्रकार (एकत्वानुप्रेक्षा में) सदैव चिन्तन करना चाहिए।३ १. 'शान्तसुधारस; संकेतिका नं. ४' से भावांश ग्रहण, पृ. १८ २. (प्र.) सहाय-पच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ? - (उ.) सहाय-पच्चक्खाणेणं एगीभावं जणयइ। एगीभावभूए वि य णं जीवे एगत्तं भावमाणे . अप्पसद्दे अप्पझंझे अप्पकलहे. अप्पकसाए अप्पतुमंतुमे संजमबहुले संवरबहुले समाहिए यावि भवइ।
--उत्तराध्ययन, अ. २९, बोल ३९ ३. (क) एकः सदा शाश्वतिको ममाऽत्मा, विनिर्मलः साधिगम-स्वभावः। बहिर्भवाः सन्त्यपरे समस्ता, न शाश्वताः कर्मभवाः स्वकीयाः॥
-परमात्म-द्वात्रिंशिका, श्लो. २६ (ख) एक्कोऽहं णिम्ममो सुद्धो, णाण-दंसण-लखणो। सुद्धयत्तमुपादेयमेव मेवं चिंतेइ सव्वदा॥
-बारस अणुवेक्खा, गा. २० (ग) एगो मे सासओ अप्पा, णाणदंसणलक्खणो।
सेसा मे बाहिरा भावा, सब्बे संजोगलक्खणा॥