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२१४ कर्मविज्ञान : भाग ६
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मन
नहीं
सुरीले गीत किसके यहाँ और क्यों गाये जा रहे हैं ?" माँ ने उसे सहलाते हुए कहा - "बेटे ! आज पड़ौसी के यहाँ पुत्र - जन्म हुआ है। उसकी खुशी में ये मंगल गीत गाये जा रहे हैं।” कुछ समय बीता । मंगल मधुर गीतों के करुण विलाप, हृदयद्रावक रुदन के स्वर गूंज उठे। कुमार के शब्दों से हलचल मच गई। दौड़ा-दौड़ा माँ के पास आकर पूछने असुहावने गीत क्यों गाये जा रहे हैं? ये तो कानों को प्रिय के गीत लगते थे।” पुत्र को वात्सल्यवश चूमते हुए माँ ने नहीं, रुदन के स्वर हैं। जिस पुत्र के जन्म की खुशी में सुरीले गीत गाये जा रहे थे, उसी पुत्र के वियोग के शोक में ये विलाप के गीत गाये जा रहे हैं । " थावच्चापुत्र बोला - " अभी जन्मा और अभी मर गया ! क्या माँ ! मैं भी एक दिन इसी तरह मरूँगा ?" माँ ने कहा - " पुत्र ! यह तो अनिवार्य है। इसमें किसी का वंश नहीं चलता । जिसका जन्म होता है, उसकी एक दिन देर-सबेर से मृत्यु भी होती है। जन्म और मरण, ये दो जीवननदी के शाश्वत तट हैं। "
कहा - " वत्स ! ये गीत
बदले कर्णकटु,
में इन कर्णकटु
- "माँ, अब ये
लगा - " लगते, जैसे पहले
पुत्र का मन मृत्यु के भय से उद्विग्न हो गया। उसने माँ से पूछा - "क्या यह जीवन जन्म, जरा, रोग और मरण से परिक्लान्त होकर यों ही चलता रहेगा ? क्या इस संसार परम्परा का कोई अन्त नहीं है ? कोई भी उससे वंचित नहीं हो सकता ?” माँ ने कहा - " वत्स ! यों तो सर्वसाधारण के लिए एक ही नियम है और एक ही परम्परा है। इसमें अपवाद हैं तो भगवान अरिष्टनेमि अथवा उनकी शरण में जाकर जन्ममरणादिरूप संसार परम्परा का उच्छंद करने के लिए सत्पुरुषार्थ करने वाले साधक ! भगवान अरिष्टनेमि ने जन्म-मरण की परम्परा को विच्छिन्न कर दिया है, वे वीतराग, सर्वज्ञ महाश्रमण हैं। उनकी शरण ग्रहण कर कर्ममुक्ति के पथ में पुरुषार्थ करने वाला संसार परम्परा के चक्रव्यूह का भेदन कर सकता है और सिद्ध-बुद्ध-मुक्त अजर-अमर हो सकता है । "
माता के मुख से अमरत्व प्राप्ति के अर्थात् संसार से मुक्ति के अमोघ उपाय को जानकर थावच्चापुत्र प्रबुद्ध और पुलकित हो उठा। वह परम महर्षि अरिष्टनेमि की शरण पाने को उत्कण्ठित हो गया । एक दिन वह स्वर्णिम अवसर आया, जब कुमार थावच्चापुत्र अर्हत् अरिष्टनेमि का प्रवचन सुनकर विरक्त हो गया। वह उनसे दीक्षित होकर तप, संयम, त्यागबल से अपनी आत्मा को भावित कर साधना के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच गया, जहाँ जाने पर जन्म-जरा-रोग-मरणरूप संसार ' का सदा-सदा के लिए अन्त हो जाता है। यह थी - संसारानुप्रेक्षा से सिद्ध-बुद्ध और मुक्त होने की उपलब्धि ।'
9 (क) 'शान्तंसुधारस, परिशिष्ट ३' (हिन्दी अनुवादक - मुनि राजेन्द्रकुमार) से भाव ग्रहण, पृ. १०५ (ख) 'जातधर्मकथासूत्र' से संक्षिप्त