________________
ॐ कर्ममुक्ति में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ २१३ ४
योनियों में होने वाले) दुःख के भय से उद्विग्न होता है और फिर उसे संसार से निर्वेद (वैराग्य) होता है और निर्विण्ण (विरक्त) होकर संसार को नष्ट करने का पुरुषार्थ करता है।” १
संसार को दुःखनिधान भयंकर अरण्य मानकर चिन्तन अध्यात्ममनीषियों ने संसार को अतीव भयंकर, सघन एवं भटकाने वाला महारण्य बताया है। कर्मोदयवश संसारी प्राणी जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, शोक एवं भय से संतप्त होकर इस भवारण्य में भटकता है। मन-वचन-काया सम्बन्धी अनेक चिन्ताओं से तथा क्रोधाधि कषायों से ग्रस्त होकर पद-पद पर विपत्तियों को झेलता है। इस संसार की मृगतृष्णा में लुभाकर जीव दुःखी होता है। यहाँ सुखं भी दुःखमूलक है, फिर भी वह सुख को खोजता है । संसारानुप्रेक्षक साधक इस प्रकार का अनुप्रेक्षण करता हुआ, अनुभवात्मक संसारविरक्तिरूप चिन्तन करता है कि न मालूम कब से और किन कारणों से इस संसार में परिभ्रमण कर रहा हूँ? मैं अपने अज्ञानवश प्रत्येक गति और योनि में परिभ्रमण कर चुका हूँ। क्या मैं आगे भी इसी प्रकार जन्म-मरणरूप संसार में परिभ्रमण करता रहूँगा? वह उन उन गतियों में जीव को प्राप्त होने वाले दुःखों का चिन्तन करके भवभ्रमण के बन्धन के कारणभूत राग-द्वेष को छोड़ना चाहता है। दुर्लभ मनुष्य जन्म में ही वह इस संसार भ्रमण के कारणरूप कर्मबन्ध को तथा कर्मास्रव को क्षीण और निरुद्ध करने का पुरुषार्थ करता है। इस प्रकार संसारानुप्रेक्षा से संवर और निर्जरा का उपार्जन कर लेता है। २
संसारानुप्रेक्षा से थावच्चापुत्र ने महाश्रमण बनकर मोक्ष प्राप्त किया थावच्चापुत्र अभी अबोध बालक था। एक दिन पड़ौस में सुरीले कंठों से मनभावन मधुर गीत गाये जा रहे थे। थावच्चापुत्र ने माँ से पूछा - "माँ ! आज ये
(क) एवं पूर्वोक्तप्रकारेण द्रव्य-क्षेत्र - काल- भव-भावरूपं पंचप्रकारं संसारं भावयतोऽस्य जीवस्य • संसारातीत स्व-शुद्धात्मसंवित्ति - नाशकेषु संसार-वृद्धि-कारणेषु मिथ्यात्वाविरति -प्रमादकषाय-योगेषु परिणामो न जायते । किन्तु संसारांतीत सुखास्वादे रतो भूत्वा स्व-शुद्धात्मसंवित्ति - बलेन संसार - विनाशक- निज- निरंजन- परमात्मन्येव भावनां करोति । ततश्च यादृशमेव परमात्मानं भावयति तादृशमेव लब्ध्वा संसार - विलक्षणं मोक्षेऽनन्तकालं तिष्ठतीति । - बृहद्द्रव्यसंग्रह, गा. ३५, पृ. ८४
(ख) इय संसारं जाणिय मोहं सव्वायरेण चइऊण ।
. तं झायह ससहावं, संसरणं जेण णासेइ ॥
- का. अ. ७३
(ग) एवं ह्यस्य भावयतः संसारदुःख भयादुद्विग्नस्य ततो निर्वेदो भवति । निर्विण्णश्च
संसारप्रहाणाय प्रयतते ।
- स. सि. ९/७/४१५
(क) 'शान्तसुधारस, संकेतिका नं. ३' से भाव ग्रहण, पृ. १३ (ख) 'अमूर्त चिन्तन' से भाव ग्रहण, पृ. ३०