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कर्मविज्ञान : भाग ६ ®
कारणरूप नानाविध कषायभावों का परिवर्तन भी भावसंसार है। इस प्रकार पंचपरावर्तनरूप संसार में यह जीप अनादिकाल से मिथ्यात्व दोष के कारण नाना दुःख वेधान संसार में परिभ्रमण करता है। .. संसारानुप्रेक्षा का फल : संवर, निर्जरा और मोक्ष
. 'द्रव्यसंग्रह टीका' के अनुसार-पूर्वोक्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप पंचविध संसार का अनुप्रेक्षण = बार-बार चिन्तन करते हुए इस जीव के संसाररहित निजशुद्धात्मज्ञान का नाश करने वाले तथा संसारवृद्धि के कारणभूत मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग में परिणाम नहीं जाता। अपितु वह संसारातीत (आत्मिक) सुख के अनुभव में लीन होकर निजशुद्धात्मज्ञान के बल से संसार को नष्ट करने वाले निजनिरंजन परमात्मभाव से भावित होता है। फिर तदनुसार परमात्मपद (वीतरागभाव) को प्राप्त करके संसार से विलक्षण मोक्ष (कर्मों से सर्वथा मुक्तिरूप) में अनन्तकाल तक रहता है। ___ 'कार्तिकयानप्रेक्षा' में कहा है-“संसारानुप्रेक्षक इस प्रकार संसार को जानकर और सम्यक् व्रताचरण, ध्यान आदि समस्त उपायों से मोह का त्यागकर अपने शुद्ध ज्ञानमय स्वरूप का ध्यान करे। जिससे पाँच प्रकार के संसार परिमण का नाश होता है।" 'सर्वार्थसिद्धि' में संसारानुप्रेक्षा का फल बताते हुए कहा गया है-“इस (पूर्वोक्त) प्रकार से चिन्तन करने वाला अनुप्रेक्षक संसार के (नाना गतियों और
१. (क) संसारो पंचविहो दव्वे खेते तहेत काले या
भवभमणो य चउत्थो, पंचमओ भावसंसारो॥६६॥ बंधदि मुंचदि जीवो पडसमयं कम्मपुग्गला विविहा। णोकम्मपुग्गला विय, मिच्छन-कसाय-संजुत्तो॥६७॥ सो को विधात्थि देसो लोयायासस्स णिरवसेसस्स। जत्थ ण सव्वो जीवो जादो मरिदो य बहुवारं॥६८॥ उपसप्पिणि-अवसप्पिणि-पढमसमयादि-चरमसमयं तं। जीवो कम्मेण जम्मदि मरदिय सव्वेसु कालेसु॥६९॥ . णरइयादि-गदीणं सवरद्विदिदो वरद्विदि जाव। सव्वविदिसु वि जम्मदि जीवो गेवेज्ज-पज्जंतं ॥७॥ परिणमदि सण्णिजीवो विविहुकसाएहिं दिद्धि-णिमित्तेहि। अणुभाग-णिमिते हिंग वड्डेतो भावसंसारे॥७१।। एवं अणाइकालं पंचपयारे भइ संसारे।
णाणादुख-णिहाणे जीवो मिच्छत्त-दोसेण।।७२ ॥ (ख) 'अमूर्त चिन्तन' से भाव ग्रहण, पृ. ३०
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा ६६-७२ ..